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कामायनी

जयशंकर प्रसाद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :177
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9700

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अत्याचार प्रकृत-कृत हम सब जो सहते हैं,
करते कुछ प्रतिकार न अब हम चुप रहते हैं!

आज न पशु हैं हम, या गूंगे काननचारी,
यह उपकृति क्या भूल गये तुम आज हमारी!''

न बोले सक्रोध मानसिक भीषण दुख से,  
''देखो पाप पुकार उठा अपने ही मुख से!

तुमने योगक्षेम से अधिक संचय वाला,
लोभ सिखा कर इस विचार-संकट में डाला।

हम संवेदनशील हो चले यही मिला सुख,
कष्ट समझने लगे बनाकर निज कृत्रिम दुख!

प्रकृत-शक्ति तुमने यंत्रों से सब की छीनी।
शोषण कर जीवनी बना दी जर्जर झीनी!

और इड़ा पर यह क्या अत्याचार किया है?
इसीलिए तू हम सबके बल यहां जिया है?

आज बंदिनी मेरी रानी इड़ा यहां है?
ओ यायावर? अब तेरा विस्तार कहां है?''

''तो फिर मैं हूं आज अकेला जीवन रण में,
प्रकृति और उसके पुतलों के दल भीषण में।

आज साहसिक का पौरुष निज तन पर लेखें,
राजदंड को वज्र बना सा सचमुच देखें।''

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