उपन्यास >> कंकाल कंकालजयशंकर प्रसाद
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कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।
किशोरी ने हाथ जोड़कर
कहा, 'महाराज, मेरे ऊपर दया न होगी?'
निरंजन ने कहा, 'किशोरी,
तुम मुझको पहचानती हो?'
किशोरी ने उस धुँधले
प्रकाश में पहचानने की चेष्टा की; परन्तु वह असफल होकर चुप रही।
निरंजन
ने फिर कहना आरम्भ किया, 'झेलम के तट पर रंजन और किशोरी नाम के दो बालक और
बालिका खेलते थे। उनमें बड़ा स्नेह था। रंजन अपने पिता के साथ हरद्वार
जाने लगा, परन्तु उसने कहा था कि किशोरी मैं तेरे लिए गुड़िया ले आऊँगा;
परन्तु वह झूठा बालक अपनी बाल-संगिनी के पास फिर न लौटा। क्या तुम वही
किशोरी हो?'
उसका बाल-सहचर इतना बड़ा
महात्मा! - किशोरी की समस्त धमनियों में हलचल मच गयी। वह प्रसन्नता से बोल
उठी, 'और क्या तुम वही रंजन हो?'
लड़खड़ाते
हुए निरंजन ने उसका हाथ पकड़कर कहा, 'हाँ किशोरी, मैं वहीं रंजन हूँ।
तुमको ही पाने के लिए आज तक तपस्या करता रहा, यह संचित तप तुम्हारे चरणों
में निछावर है। संतान, ऐश्वर्य और उन्नति देने की मुझमें जो शक्ति है, वह
सब तुम्हारी है।'
अतीत की स्मृति, वर्तमान
की कामनाएँ किशोरी को भुलावा देने लगीं। उसने ब्रह्मचारी के चौड़े वक्ष पर
अपना सिर टेक दिया।
कई
महीने बीत गये। बलदाऊ ने स्वामी को पत्र लिखा कि आप आइये, बिना आपके आये
बहूरानी नहीं जातीं और मैं अब यहाँ एक घड़ी भी रहना उचित नहीं समझता।
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