उपन्यास >> कंकाल कंकालजयशंकर प्रसाद
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कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।
उपस्थित साधु और भक्तों
ने एक-दूसरे का मुँह देखते हुए
प्रसन्नता प्रकट की। सहसा महात्मा ने कहा, ऐसा ही उपनिषदों में भी कहा है।
सम्भ्रान्त पुरुष सुशिक्षित था, उसके हृदय में यह बात समा गयी कि महात्मा
वास्तविक ज्ञान-सम्पन्न महापुरुष हैं। उसने अपने साधु-दर्शन की इच्छा की
सराहना की और भक्तिपूर्वक बैठकर 'सत्संग' सुनने लगा।
रात हो गयी;
जगह-जगह पर अलाव धधक रहे थे। शीत की प्रबलता थी। फिर भी धर्म-संग्राम के
सेनापति लोग शिविरों में डटे रहे। कुछ ठहरकर आगन्तुक ने जाने की आज्ञा
चाही। महात्मा ने पूछा, 'आप लोगों का शुभ नाम और परिचय क्या है?’
'हम
लोग अमृतसर के रहने वाले हैं, मेरा नाम श्रीचन्द्र है और यह मेरी
धर्मपत्नी है।' कहकर श्रीचन्द्र ने युवती की ओर संकेत किया। महात्मा ने भी
उसकी ओर देखा। युवती ने उस दृष्टि से यह अर्थ निकाला कि महात्मा जी मेरा
भी नाम पूछ रहे हैं। वह जैसे किसी पुरस्कार पाने की प्रत्याशा और लालच से
प्रेरित होकर बोल उठी, 'दासी का नाम किशोरी है।'
महात्मा की दृष्टि में
जैसे एक आलोक घूम गया। उसने सिर नीचा कर लिया और बोला, 'अच्छा विलम्ब
होगा, जाइये। भगवान् का स्मरण रखिये।'
श्रीचन्द्र किशोरी के साथ
उठे। प्रणाम किया और चले।
साधुओं
का भजन-कोलाहल शान्त हो गया था। निस्तब्धता रजनी के मधुर क्रोड़ में जाग
रही थी। निशीथ के नक्षत्र गंगा के मुकुर में अपना प्रतिबिम्ब देख रहे थे।
शांत पवन का झोंका सबको आलिंगन करता हुआ विरक्त के समान भाग रहा था।
महात्मा के हृदय में हलचल थी। वह निष्पाप हृदय ब्रह्मचारी दुश्चिन्ता से
मलिन, शिविर छोड़कर कम्बल डाले, बहुत दूर गंगा की जलधारा के समीप खड़ा
होकर अपने चिरसंचित पुण्यों को पुकारने लगा।
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