उपन्यास >> कंकाल कंकालजयशंकर प्रसाद
|
2 पाठकों को प्रिय 371 पाठक हैं |
कंकाल भारतीय समाज के विभिन्न संस्थानों के भीतरी यथार्थ का उद्घाटन करता है। समाज की सतह पर दिखायी पड़ने वाले धर्माचार्यों, समाज-सेवकों, सेवा-संगठनों के द्वारा विधवा और बेबस स्त्रियों के शोषण का एक प्रकार से यह सांकेतिक दस्तावेज हैं।
दूसरे
दिन जब श्रीचन्द्र और किशोरी साधु-दर्शन के लिए फिर उसी स्थान पर पहुँचे,
तब वहाँ अखाड़े के साधुओं को बड़ा व्यग्र पाया। पता लगाने पर मालूम हुआ कि
महात्माजी समाधि के लिए हरद्वार चले गये। यहाँ उनकी उपासना में कुछ विघ्न
होता था। वे बड़े त्यागी हैं। उन्हें गृहस्थों की बहुत झंझट पसन्द नहीं।
यहाँ धन और पुत्र माँगने वालों तथा कष्ट से छुटकारा पाने वालों की
प्रार्थना से वे ऊब गये थे।
किशोरी ने कुछ तीखे स्वर
से अपने पति
से कहा, 'मैं पहले ही कहती थी कि तुम कुछ न कर सकोगे। न तो स्वयं कहा और न
मुझे प्रार्थना करने दी।'
विरक्त होकर श्रीचन्द्र
ने कहा, 'तो
तुमको किसने रोका था। तुम्हीं ने क्यों न सन्तान के लिए प्रार्थना की! कुछ
मैंने बाधा तो दी न थी।'
उत्तेजित किशोरी ने कहा,
'अच्छा तो हरद्वार चलना होगा।'
'चलो,
मैं तुम्हें वहाँ पहुँचा दूँगा। और अमृतसर आज तार दे दूँगा कि मैं हरद्वार
से होता हुआ आता हूँ; क्योंकि मैं व्यवसाय इतने दिनों तक यों ही नहीं छोड़
सकता।”
'अच्छी बात है; परन्तु
मैं हरद्वार अवश्य जाऊँगी।'
'सो
तो मैं जानता हूँ।' कहकर श्रीचन्द्र ने मुँह भारी कर लिया; परन्तु किशोरी
को अपनी टेक रखनी थी। उसे पूर्ण विश्वास हो गया था कि उन महात्मा से मुझे
अवश्य सन्तान मिलेगी।
उसी दिन श्रीचन्द्र ने
हरद्वार के लिए प्रस्थान किया और अखाड़े के भण्डारी ने भी जमात लेकर
हरद्वार जाने का प्रबन्ध किया।
|