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उपन्यास >> कुसम कुमारी

कुसम कुमारी

देवकीनन्दन खत्री

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :183
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9703

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रहस्य और रोमांच से भरपूर कहानी

चंचल–जी इसी जगह तो हैं, दो-चार कहीं इधर-उधर गए होंगे।

बीरसेन–अच्छा इधर आओ, तुमसे कुछ बात करना है।

इस तरह यकायक बीरसेन को पहुंचते देख चंचलसिंह घबड़ा गया और ठीक तरह से बातचीत न कर सका। बीरसेन ने थोड़ी देर तक उसे बातों में लगाया, तब तक वे बीस सिपाही भी वहां पहुंच गए जिन्हें जल्द भेजने के लिए वे कह आए थे। उन सिपाहियो के पहुंचते ही बीरसेन ने हुक्म दिया कि चंचलसिंह और उसके मातहती के सब सिपाहियों की मुश्कें बांध लो और हमारे घर ले जाकर खूब हिफाजत से रखो।

इसके बाद अपने दस सिपाहियों को कई बातें समझाकर चोर फाटक के पहरे पर तैनात किया और दरवाजा खोलकर बाहर निकले। उस छोटी किश्ती पर पहुंचे जो जरूरत पर काम देने के लिए खाई के किनारे बंधी हुई थी। डांड उठा कर देखा तो गीला पाया, कुछ ऊंची आवाज में बोले–बेशक वही हुआ जो मैं सोचता हूं!

एक सिपाही को अपने पास बुला लिया और डोंगी खेकर पार उतरने के बाद उस डोंगी को फिर अपने ठिकाने ले जाकर बांध देने का हुक्म दिया।

बीरसेन सीधे मैदान की तरफ कदम बढ़ाए चले गए और घण्टे भर बाद उस पीपल के पेड़ के पास पहुंचे जिसके नीचे कसे-कसाए दो घोड़े बंधे थे और एक साईस खड़ा था।

पाठक समझ ही गए होंगे कि इसी पीपल के पेड़ के नीचे एक मर्द को साथ लिए कालिन्दी पहुंचने वाली थी, बल्कि यों कहना चाहिए कि इन्हीं घोड़ों पर सवार हो वे दोनों भागने वाले थे। देखिए अपने साथी मर्द का हाथ थामे वह कालिन्दी भी आ रही है, बीरसेन पहले ही पहुंच चुके हैं, देखे क्या करते हैं।

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