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उपन्यास >> कुसम कुमारी

कुसम कुमारी

देवकीनन्दन खत्री

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :183
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9703

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रहस्य और रोमांच से भरपूर कहानी


चौथा बयान

सवेरा हो गया था जब बाबाजी को साथ लिए हुए ये ग्यारहों सवार उस पहाड़ी के नीचे पहुंचे। देखा कि उनके साथी सवारों में से बहुत से उसी जगह खड़े हैं।

हरीसिंह ने उनसे पूछा, ‘‘क्या हाल है?’’

एक सवार ने जवाब दिया, ‘‘कुछ साथी लोग उनको लेने के लिए ऊपर गए हैं।’’

हरीसिंह ने एक लंबी सांस लेकर कहा, ‘‘ऊपर है कौन जिसे लेने गए हैं, वहां तो मामला ही दूसरा हो गया। क्या जाने ईश्वर की क्या मर्जी है? (जसवंतसिंह की तरफ देखकर) आइए बाबाजी, हम और आप भी ऊपर चलें।’’

हरीसिंह और जसवंतसिंह घोड़े पर से उतर पहाड़ी के ऊपर गए और बाग में जाकर, अपने साथियों को रनबीरसिंह की खोज में चारों तरफ घूमते देखा।

हरीसिंह और बाबाजी को देख एक सवार जो सभी का बल्कि हरीसिंह का भी सरदार मालूम होता था आगे बढ़ आया और बोला, ‘‘हरीसिंह, यहां तो कोई भी नहीं है! माली ने बिलकुल गप्प उड़ाकर हम लोगों को फजूल ही हैरान किया।’’

हरीसिंह–नहीं-नहीं, माली ने झूठी खबर नहीं पहुंचाई थी।

सरदार–क्या इन बाबाजी से कोई हाल तुम्हें मिला है?

हरीसिंह–हां, बहुत कुछ हाल मिला है। यह कहते हैं कि पांच सवारों ने यहां आकर रनबीरसिंह को गिरफ्तार कर लिया और अपने साथ ले गए।

सरदार–(चौंककर) है, यह क्या गजब हो गया! (बाबाजी की तरफ देखकर) बाबाजी, क्या यह बात ठीक है?

जसवंत–हां, मैं बहुत ठीक कह रहा हूं।

इसके बाद हरीसिंह ने अपने सरदार से वे सब बातें कहीं जो रास्ते में बाबाजी से हुई थीं और आखिर में यह भी कहा कि यह बाबाजी हमें असली बाबाजी नहीं मालूम होते, जरूर इन्होंने अपनी सूरत बदली है। जब से यह घोड़े पर सवार होकर हमारे साथ चले हैं तभी से मैं इस बात को सोच रहा हूँ, क्योंकि जिस तरह सवार होकर ये बराबर हम लोगों के साथ घोड़ा फेंके चले आए हैं, इस तरह की सवारी करना किसी बाबाजी का काम नहीं है, कौन ऐसे बाबाजी होंगे?

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