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उपन्यास >> कुसम कुमारी

कुसम कुमारी

देवकीनन्दन खत्री

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :183
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9703

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रहस्य और रोमांच से भरपूर कहानी

जसवंत भी चौंका हुआ था और इसीलिए इधर-उधर आगे-पीछे देखता-भालता जा रहा था। अपने पीछे तो दिलावर जंगी सिपाहियों को आते देख वह कुछ अटका मगर फिर आगे बढ़ा, इसी तरह घड़ी-घड़ी पीछे देखता अटकता आगे बढ़ता चला जा रहा था। पीछे-पीछे जानेवाले दोनों सिपाही भी उसी की चाल चलते थे अर्थात् जब वह अटकता तो वह भी रुक जाते और उसके चलने के साथ ही पीछे-पीछे चलने लगते। यह कैफियत देख जसवंतसिंह के जी में खटका पैदा हुआ बल्कि उसे खौफ मालूम होने लगा और एक चौमुहानी पर पहुंच वह एक किनारे हटकर खड़ा हो गया। वे दोनों सिपाही भी कुछ दूर पीछे ही खड़े हो गए।

जसवंत आधी घड़ी तक खड़ा रहा, जब तक दोनों सिपाहियों को भी रुके हुए देखा तो पीछे की तरह लौटा, मगर जब वहां पहुंचा, जहां वे दोनों सिपाही खड़े थे तब रोक लिया गया। दोनों सिपाहियों ने पूछा, ‘‘लौटे कहां जाते हो?’’

जसवंत ने कहा, ‘‘जहां से आए थे वहां जाते हैं।’’

दोनों सिपाहियों ने कहा, ‘‘तुम अब लौटकर नहीं जा सकते, इस चारदीवारी के अंदर जहां जी चाहे जाओ, घूमो फिरो, हम दोनों तुम्हारे साथ रहेंगे, मगर लौटकर नहीं जाने देंगे।’’

जसवंत–क्यों?

एक सिपाही–मालिक का हुक्म ही ऐसा है।

जसंवत–यह हुक्म किसके लिए है?

दूसरा सिपाही–खास तुम्हारे लिए।

जसवंत–क्या तुम लोग मुझे जानते हो?

दोनों–खूब जानते हैं कि तुम जसंवतसिंह हो।

जसवंत–यह तुमने कैसे जाना?

दोनों–इसका जवाब देने की जरूरत नहीं। तुम यहां क्यों आए हो?

जसवंत–तुम्हारे मालिक बालेसिंह से मुलाकात करने आया था।

एक-तो लौटे क्यों जाते हो? चलो हम तुम्हें अपने मालिक के पास ले चलते हैं।

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