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उपन्यास >> कुसम कुमारी

कुसम कुमारी

देवकीनन्दन खत्री

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :183
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9703

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रहस्य और रोमांच से भरपूर कहानी


दूसरा बयान

पहाड़ी के ऊपर से तो वह गांव बहुत पास मालूम पड़ा था, मगर जसवंतसिंह को बहुत काफी रास्ता चलना पड़ा, तब वह उस गांव के पास पहुंचे। एक जगह अटककर जसवंतसिंह ने फिर कर उस पहाड़ी की तरफ देखा जिस पर रनबीर थे और तब फिर गांव की तरफ चले। दो कदम भी आगे नहीं बढ़े थे कि सामने से पांच फौजी सवार घोड़ा दौडा़ए चले आते दिखाई पड़े।

सवारों के निकल जाने की जगह छोड़ जसवंतसिंह सड़क के एक किनारे खड़े हो गए, इतने में वे सवार भी उस जगह आ पहुंचे। इनको भड़कीली पोशाक पहने तलवार लगाए देख रुक गए और एक सवार ने इनसे पूछा, ‘‘कौन हो तुम?’’

जसवंत–मैं एक मुसाफिर हूं।

एक सवार–अकेले मुसाफिरी कैसे करते हो?

जसवंत–साथियों का साथ छूट गया।

दूसरा सवार–तुम तो घोड़े पर भी सवार नहीं दिखाई देते। भूलकर आगे कैसे बढ़ आए?

जसवंत–(हाथ से इशारा करके) उसी पहाड़ी के नीचे हमारा घोड़ा मर गया। जसंवतसिंह की बातों को सुन पांचों सवार एक दूसरे का मुंह देखने लगे। एक ने धीरे से कहा, ‘‘झूठा है।

दूसरा बोला, ‘‘यह तो उस पहाड़ी के नीचे चलने ही से मालूम हो जाएगा, अगर वह मरा हुआ घोड़ा न दिखाई देगा।’’

तीसरे ने कहा, ‘‘इसे पकड़ के वहां तक साथ ले चलना चाहिए।’’

चौथे ने जो सभी से उम्दी पोशाक पहने हुए था और इन चारों का सरदार मालूम होता था, अपनी जेब से एक तसवीर निकाली और देखकर कहा, ‘‘नहीं, इसे पकड़ने की क्या जरूरत है, मतलब तो उस दूसरे से है, इसे छोड़ा और आगे बढ़ो, वह खबर झूठी नहीं, ’’ इतना कह आगे को घोड़ा बढ़ाया, चारों सवार भी साथ हुए और सब लोग उस पहाडी़ की तरफ चले, जहां से जसवंतसिंह चले आ रहे थे।

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