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धर्म एवं दर्शन >> क्या धर्म क्या अधर्म

क्या धर्म क्या अधर्म

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :82
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9704

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धर्म और अधर्म का प्रश्न बड़ा पेचीदा है। जिस बात को एक समुदाय धर्म मानता है, दूसरा समुदाय उसे अधर्म घोषित करता है।



मध्यम मार्ग


यात्रा का नियम है कि मध्यम वृत्ति से कदम उठाये जाँय, मामूली बीच की चाल से चला जाय। बहुत ही धीरे-धीरे चलना तथा अत्यन्त तेजी से भागकर चलना यह दोनों ही स्थितियाँ हानिकारक हैं। बहुत धीरे चलने से यात्रा का क्रम रुक जाता है और नाना प्रकार के दोष उत्पन्न हो जाते हैं। शरीर को परिश्रम करने की आवश्यकता है। यदि कोई व्यक्ति गद्दे-तकिया पर पड़ा-पड़ा समय बिताये तो नाड़ियाँ निर्बल हो जायेंगी, पाचन शक्ति घट जायगी, इन्द्रियों में दोष उत्पन्न हो जायेंगे। इसी प्रकार यदि शरीर से अत्यधिक काम लिया जाय, दिन-रात कठोर परिश्रम में जुटा रहा जाय तो भी शक्ति का अधिक व्यय होने से देह क्षीण हो जायगी, परमात्मा ने मन एव इन्द्रियों के सुन्दर औजार दिये हैं जिनसे जीव अपनी मूलभूत आकांक्षा को पूरी कर सके। पेट को भूख लगती है बुद्धि को चिन्ता होती है कि भोजन प्राप्त करने का परिश्रम करना चाहिए। मस्तिष्क धन कमाने के उपाय सोचता है पैर उद्योग धन्धे की तलाश में घूमते हैं, हाथ मजदूरी करते हैं, अन्य अंग भी अपना-अपना काम करते हैं। इन सबके प्रयत्न से शरीर के हर अंग की योग्यता बढ़ती है। बुद्धि, मस्तिष्क, हाथ, पैर सभी का अभ्यास बढ़ता है और उनकी सामूहिक उन्नति से मनुष्य की गुप्त शक्तियाँ सुदृढ़ होती जाती है। जीव का उतने अंशों में विकास होता जाता है। पेट को भूख न लगती तो मनुष्य जो निरन्तर उद्योग करता है उसे क्यों करता? अजगर की तरह किसी गुफा में पड़ा सोया करता, जब भी चाहता थोड़ा बहुत खा लेता। न बुद्धि को कष्ट देने की जरूरत होती, न शरीरको। आज जिनती दौड़-धूप चारों ओर दिखाई पड़ रही है भूख के न होने पर इसका हजारवाँ भाग भी दिखाई न पड़ता। सृष्टि संचालन के लिए परमात्मा को जीव की विकास यात्रा निर्धारित करनी पड़ी और वह यात्रा गड़बड़ में न पड़ जाय इसलिए ऐसी आवशकताऐं पीछे लगा देनी पड़ी जिनसे प्रेरित होकर जीव की विकास यात्रा निरन्तर जारी रहे।

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