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धर्म एवं दर्शन >> क्या धर्म क्या अधर्म

क्या धर्म क्या अधर्म

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :82
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9704

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धर्म और अधर्म का प्रश्न बड़ा पेचीदा है। जिस बात को एक समुदाय धर्म मानता है, दूसरा समुदाय उसे अधर्म घोषित करता है।


यह पहिले ही बताया जा चुका है कि धर्म का अर्थ स्वभाव है। स्वभाव मनुष्यकृत नहीं होता वरन् ईश्वर प्रदत्त होता है। जिस योनि में जैसी शिक्षा प्राप्त करनी होती है उसकी मर्यादा चारों ओर से खिंची हुई होती है, जिससे नौसिखिए कुछ भूल न कर बैठें। स्कूल के छात्र खेल के घण्टों में जब गेंद खेलते हैं तो अध्यापक उन्हें एक मर्यादित क्षेत्र बता देता है कि इस भूमि में खेलो। वैसे तो अपनी बुद्धि के अनुसार खेलने, हारने, जीतने में खिलाड़ी लोग स्वतंत्र हैं अध्यापक उसमें हस्तक्षेप नहीं करता पर क्षेत्र जरूर मर्यादित कर देता है। फील्ड छोड्कर सड़क पर फुटबाल उछालने की वहाँ व्यवस्था नहीं है। इसी प्रकार मनुष्य की कुछ स्वाभाविक मर्यादाऐं है जिनके अन्दर वह भले-बुरे खेल खेलता है। यही स्वाभाविक मर्यादाऐं दार्शनिक दृष्टि से धर्म कहलाती हैं। धर्म के अन्तर्गत क्षेत्र में ही मनुष्य के सारे काम होते हैं, इसमें पाप पुण्य क्या है? और किस प्रकार है? इसकी विवेचना तो हम अगले पृष्ठों में करेगे। इस समय तो मूलभूत धर्म के बारे में ईश्वर दत्त स्वाभाविक मर्यादा के सम्बन्ध में चर्चा की जा रही है, जिसे जानकर यह निश्चय किया जा सके कि हमें यह मानव देह क्या शिक्षा प्राप्त करने के लिए मिली है।

मनुष्य क्या करने में लगा रहता है, इसका गहरा निरीक्षण करके आध्यात्मिक तत्ववेत्ताओं ने यह निष्कर्ष निकाला है कि सच्चिदानंद की उपासना में मानव प्राणी हर घड़ी लगा रहता है, एक पल के लिए भी इसे नहीं छोड़ता और न इसके अतिरिक्त और कुछ काम करता है। पाठक अधीर न हों कि सच्चिदानन्द की उपासना तो विरले ही करते हैं, यदि विरले ही करते तो वह बात स्वाभाविक धर्म न रह जाती, फिर उसे मुनष्यकृत मानना पड़ता है। अगली पंक्तियों में यही बताया जा रहा है कि किस प्रकार प्रत्येक मनुष्य सच्चिदानन्द की उपासना करता हुआ अपने धर्म कर्तव्य को पालन करने में लगा हुआ है।

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