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धर्म एवं दर्शन >> क्या धर्म क्या अधर्म

क्या धर्म क्या अधर्म

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :82
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9704

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धर्म और अधर्म का प्रश्न बड़ा पेचीदा है। जिस बात को एक समुदाय धर्म मानता है, दूसरा समुदाय उसे अधर्म घोषित करता है।


विद्याध्ययन, सत्संग, स्वाध्याय, साधना अन्वेषण, आविष्कार, खोज, परीक्षण, वाद-विवाद, यात्रा, समारोहों में सम्मिलित होना, नवीन वस्तुओं का देखना, इस श्रेणी के कार्य गुप्त विषयों की जानकारी के लिए होते हैं। समाज में रहना, मित्र बढ़ाना, संगठन में बँधना, दल बनाना, कम्पनी खोलना, साझा करना आदि कार्यो के द्वारा मनुष्य दूसरों की योग्यताओं की जानकारी प्राप्त करता एवं उनकी सामूहिक अनुभूतियों के आधार पर अपनी ज्ञान चेतना में वृद्धि होने का लाभ उठाना चाहता है। इस प्रकार रहस्यान्वेषण को अपना प्रिय विषय बनाकर हम अल्पज्ञता से सर्वज्ञता की ओर बढ़ना चाहते हैं। अपने संसार के और अदृश्य विषयों के रहस्य से परिचित होने के लिए ज्ञान की तीव्र पिपासा को जीव अपने अन्दर धारण किए हुए हैं। शिक्षालय, योग साधनाऐं, प्रयोगशालाऐं, पुस्तकें समाचार पत्र, रेडियो, मनुष्य की इसी महान मानसिक क्षुधा के निवारणार्थ - ज्ञान वृद्धि के निमित्त प्रयत्न कर रहे हैं।

स्वादिष्ट भोजन, शीतोष्ण निवारण के प्रयत्न, वस्त्र, कोमल बिस्तर, सवारी, सेवक आदि शरीर सुख के लिए तथा खेल, तमाशे, नाच-रंग, गीत, वाद्य आदि मनोरंजन के लिए होते हैं। त्याग, दान, अद्भुत कार्य, कष्टों का मुकाबिला आदि धीरता-वीरता के कार्य साहस प्रदर्शित करने के लिए हुआ करते हैं। पुरुषों का स्त्रियों के सम्बन्ध में और स्त्रियों का पुरुषों के सम्बन्ध में अनेक मार्गों से अधिक दिलचस्पी लेना भी सर्वत्र देखा जाता है, यह खिंचाब भी आनन्ददायक समझा जाता है। शरीर सुस्थिर, दार्घजीबी आनन्दी एवं उन्नतिशील बनने की क्षमता वाला रहे और मनोरंजन से चित्त हलका होकर ऊर्ध्वगति प्राप्ति करने की सामर्थ्य अपने अन्दर धारण किए रहे, इसलिए अन्त: चेतना स्वयंमेव ऐसा प्रयत्न कर रही हैं कि शरीर और मन की प्रसन्नता नष्ट न होने पावे।

पाठक! सब ओर भली प्रकार की दृष्टि दौड़ाकर देख ले, सत् - अस्तित्व की उन्नति, चित् - ज्ञान की वृद्धि, आनन्द - शरीर और मन की सुख साधना में ही सब लोग प्रवृत्त मिलेंगे कोई भी व्यक्ति इस कार्यक्रम से पृथक्-सच्चिदानन्द की उपासना से विरक्त दिखाई न पड़ेगा। इसे जब हम गम्मीर दृष्टि से मनुष्य के स्वभाव-जन्य मूलभूत धर्म की खोज करते हैं, तो सच्चिदानन्द की उपासना इसी तत्व को प्राप्त करते हैं।

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