धर्म एवं दर्शन >> क्या धर्म क्या अधर्म क्या धर्म क्या अधर्मश्रीराम शर्मा आचार्य
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धर्म और अधर्म का प्रश्न बड़ा पेचीदा है। जिस बात को एक समुदाय धर्म मानता है, दूसरा समुदाय उसे अधर्म घोषित करता है।
धर्म की पहचान यही है कि
स्वयं आत्मिक शान्ति प्राप्त हो और दूसरों को सुख मिले। उस दुकान से यदि
यह दोनों कार्य पूरे होते हैं तो यज्ञशाला से वह किसी प्रकार कम नहीं
ठहराई जा सकती। राजा जनक राजपाट करते थे, उनकी बहुत-सी रानियाँ भी थीं, पर
वे उच्चकोटि के योगी थे। बड़े-बड़े तपस्वी, वनवासी उनसे शिक्षा प्राप्त करने
आते थे। राजपाट, दुकान, वेद पाठ, सन्यास, मजदूरी एक कार्य मात्र हैं।
स्वयं न तो भले हैं न बुरे। इनका प्रयोग जिस रूप में किया जाय वैसा ही
इनका भला-बुरा स्वरूप बन जाता है। उत्तम काम भी यदि बदनीयती से किया जाय
तो उसका फल पाप के समान ही होगा और साधारण काम-काज भी यदि उत्तम भावना से
किया जाय तो उसका परिणाम पुण्य स्वरूप होगा।
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी
है। कुछ अपवादों को छोड़कर शेष समस्त मनुष्य दूसरों के ही सहयोग से आनन्द
लाभ कर सकते हैं। उत्तम भोजन, सुन्दर वस्त्र, मकान, सवारी, विद्या,
मनोरंजन यह सब दूसरों के सहयोग से ही तो प्राप्त होता है। निन्दा-स्तुति,
संयोग-वियोग, हानि-लाभ, अपमान, सत्कार यह कार्य दूसरों द्वारा होते हैं,
परन्तु हमारे सुख-दुःख का बहुत कुछ अवलम्बन इन्हीं पर निर्भर रहता है।
निस्संदेह समाज और व्यक्ति का घनिष्ट सम्बन्ध है। व्यक्ति की उत्तमता से
समाज की सुख-शान्ति और समाज की उत्तमता से व्यक्ति की प्रसन्नता बढ़ती है।
पुण्य कार्य वे हैं जो व्यक्ति को त्यागी बनाकर उसे समाज के लिए उपयोगी
बनाते हैं।
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