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			 उपन्यास >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
    काफ़ी
    पीते-पीते ये सब बातें चलचित्र-सी उसके आगे घूम गयीं। और जैसे रेखा की
    रहस्यमयता उसे चुनौती देने लगी। व्यक्तित्व की चुनौती की प्रतिक्रिया भुवन
    में प्रायः सर्वदा नकारात्मक ही होती है-वह अपने को समझा लेता है कि
    चुनौती के उत्तर में किसी व्यक्तित्व में पैठना चाहना अनधिकार चेष्टा है,
    टाँग अड़ाना है; क्योंकि व्यक्तित्वों का सम्मिलन या परिचय तो फूल के
    खिलने की तरह एक सहज क्रिया होना चाहिए। पर रेखा के व्यक्तित्व की चुनौती
    को उसने इस प्रकार नहीं टाला, टालने की बात ही उसके मन में नहीं आयी;
    रहस्यमयी की चुनौती स्वीकार करना तो और भी अधिक 'टाँग अड़ाना' है-क्योंकि
    किसी का रहस्य उद्घाटित करना चाहने वाला कोई कौन होता है?-यह भी उसने नहीं
    सोचा। पर अनधिकार हस्तक्षेप की भावना भी उसके मन में नहीं थी। यह जो
    जन-समुदाय से घिरे रह कर भी अलग जाकर, किसी अलक्षित शक्ति के स्पर्श से
    दीप्त हो उठने जैसी बात उसने देखी थी, रह-रह कर वही भुवन को झकझोर जाती
    थी; जैसे किसी बड़े चौड़े पाट वाली नदी में एक छोटे-से द्वीप का
    तरु-पल्लवित मुकुट किसी को अपनी अनपेक्षितता से चौंका जाय। या कि अँधेरे
    में किसी शीतल चमकती चीज़ को देखकर बार-बार उसे छूकर देखने को मन
    चाहे-कहाँ से, किस रहस्यमय रासायनिक क्रिया से यह ठंडा आलोक उत्पन्न होता
    है? 
    
    रेखा को देखते और इस ढंग की बात सोचते हुए भुवन कदाचित्
    अनमना हो गया था, क्योंकि उसने सहसा जाना, चन्द्र और रेखा में यह बहस चल
    रही है कि सत्य क्या है; और कब कैसे यह आरम्भ हो गयी उसने लक्ष्य नहीं
    किया था। 
    
    चन्द्र कह रहा था, “सत्य सभी कुछ है-सभी कुछ जो है। होना ही सत्य की
    एक-मात्र कसौटी है।” 
    			
						
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