| उपन्यास >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
    तो मेरी रुचि व्यक्ति में रही
    है और है; 'नदी के द्वीप' व्यक्ति-चरित्र का ही उपन्यास है। घटना उसमें
    प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से काफ़ी है, पर घटना प्रधान उपन्यास वह नहीं है।
    'शेखर' की तरह वह परिस्थितियों में विकसित होते हुए एक व्यक्ति का चित्र
    और एक चित्र के निमित्त से उन परिस्थितियों की आलोचना भी नहीं है। वह
    व्यक्ति-चरित्र का-चरित्र के उद्घाटन का उपन्यास है। उसमें पात्र थोड़े
    हैं; बल्कि कुल चार ही पात्र हैं। चारों में फिर दो, और दो में फिर एक और
    भी विशिष्ट प्राधान्य पाता है। 'शेखर' से अन्तर मुख्यतया इस बात में है कि
    'शेखर' में व्यक्तित्व का क्रमशः विकास होता है; 'नदी के द्वीप' में
    व्यक्ति आरम्भ से ही सुगठित चरित्र लेकर आते हैं। हम जो देखते हैं वह अमुक
    स्थिति में उनका निर्माण या विकास नहीं, उनका उद्घाटन भर है। और चार
    पात्रों में जो दो प्रधान हैं उन पर यह बात और भी लागू होती है; बाक़ी दो
    पात्रों में तो कुछ क्रमिक विकास भी होता है। आप चाहें तो यह भी कह सकते
    हैं कि 'नदी के द्वीप' चार संवेदनाओं का अध्ययन है। उसमें जो विकास है, वह
    चरित्र का नहीं, संवेदना का ही है। 
    
    उपन्यास क्या है या क्या नहीं
    है, इसको लेकर बहुत बहस हो सकती है, लेकिन उसमें लेखक का कोई सम्पूर्ण
    जीवन-दर्शन नहीं तो जीवन के सम्बन्ध में विचार तो प्रकट होते ही हैं। 'नदी
    के द्वीप' के लेखक के वे विचार क्या है? यहाँ कहना होगा कि वे स्पष्ट कम
    ही कहे गये हैं, लेखक की ओर से तो बिलकुल नहीं, पात्रों की उक्तियों या
    कर्मों में सीधे या प्रतीपभाव से ही वे प्रकट होते हैं, और वह भी सम्पूर्ण
    जीवन के सम्बन्ध में नहीं, उसके पहलुओं के। 'नदी के द्वीप' एक दर्द-भरी
    प्रेम-कहानी है। दर्द उनका भी जो उपन्यास के पात्र हैं, कुछ उनका भी जो
    पात्र नहीं हैं। किसी हद तक वह कहानी असाधारण भी है-जैसे कि किसी हद तक
    पात्र भी असाधारण हैं-सब नहीं तो चार में से तीन के अनुपात से। लेकिन इस
    हद तक असाधारणता दोष ही होती है, ऐसा मैं नहीं मान लूँगा। 'नदी के द्वीप'
    समाज के जीवन का चित्र नहीं है, एक अंग के जीवन का है; पात्र साधारण जन
    नहीं हैं, एक वर्ग के व्यक्ति हैं और वह वर्ग भी संख्या की दृष्टि से
    अप्रधान ही है; लेकिन कसौटी मेरी समझ में यह होनी चाहिए कि क्या वह जिस भी
    वर्ग का चित्रण है, उसका सच्चा चित्र है? क्या उस वर्ग में ऐसे लोग होते
    हैं, उनका जीवन ऐसा जीवन होता है, संवेदनाएँ ऐसी संवेदनाएँ होती हैं? अगर
    हाँ, तो उपन्यास सच्चा और प्रामाणिक है, और उसके चरित्र भी वास्तविक और
    सच्चे हैं; न साधारण टाइप हैं, न असाधारण प्रतीक हैं। और मेरा विश्वास है
    कि 'नदी के द्वीप' उस समाज का, उसके व्यक्तियों के जीवन का जिस का वह
    चित्र है, सच्चा चित्र है। निःसन्देह उपन्यास के मूल्यांकन में इससे आगे
    भी जाना होता है, इस प्रश्न का उत्तर खोजना होता है कि लेखक में तटस्थता
    कितनी है, अमुक वर्ग के संस्कारों से वह कहाँ तक असम्पृक्त रह सका या हो
    सका है। पर वह बात पात्रों की या वस्तु की असाधारणता से अलग है। 
    			
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