उपन्यास >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
“मैं कब कहता हूँ। लेकिन सत्य तो कहा जा सकता है?” चन्द्र ने विजय के स्वर
में कहा, “यही तो मैं कह रहा था।”
“नहीं।
मैं वास्तव में और सत्य में भेद करना चाहता हूँ। या कहिए कि सापेक्ष और
निरपेक्ष सत्य के प्रश्न को दूसरी तरह देखना चाहता हूँ।” भुवन क्षण भर
रुका। “एक उदाहरण लीजिए : दो और दो चार होते हैं, इस बात को आप क्या
कहेंगे?”
“सत्य। और क्या?”
“लेकिन मैं नहीं कहूँगा। मैं
कहूँगा यह तथ्य है। और इस तरह के सब 'सत्य' केवल तथ्य हैं। सत्य की संज्ञा
उन्हें तब मिल सकती है जब उनके साथ हमारा रागात्मक सम्बन्ध हो। यानी जो
तथ्य हमारे भावजगत् की यथार्थता है, वह सत्य है; जो निरे वस्तु-जगत् की
है, वह तथ्य है, वास्तविकता है, यथार्थता है, जो कह लीजिए, पर सत्य से वह
ऊनी पड़ती है।”
क्षण भर सब चुप रहे। फिर रेखा ने, कुछ इस बात को
स्वीकार करते हुए और कुछ विषयान्तर करते हुए-से, कहा, “सत्य को कटु क्यों
कहते हैं, कटु वह कैसे हो सकता है? अंग्रेजी में भी कहते हैं 'पेनफुल
ट्रुथ'-अगर हम उसे सत्य मानते हैं, जानते हैं, तो वह पेनफुल क्यों होता
है?
भुवन ने कहा, “मैं तो कहूँगा कि सत्य मात्र पेनफुल है,
रागात्मक सम्बन्ध का यह मोल हमें चुकाना पड़ता है। सत्य, तथ्य-का
रचनात्मक, सृजनात्मक रूप है, और सृजन सब पेनफुल होता है : 'अपने ताप की
तपन में सब कुछ उसने रचा'-रचना के सत्य का कितना सुन्दर वर्णन है इस वाक्य
में।”
रेखा ने कहा, “यह सचमुच बड़ी सुन्दर बात है। पर पेनफुल ट्रुथ की बात इससे
हल नहीं हुई-मुझे तो नहीं लगता कि हल हो गयी।”
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