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उपन्यास >> नदी के द्वीप

नदी के द्वीप

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :149
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9706

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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।


रेखा ने पूछा, “आज तो काफ़ी पिओगे , ठण्ड है। मैं लाती हूँ।” भुवन कुछ कहे, इससे पहले ही उसने साथ जोड़ दिया, “मैं भी पियूँगी।”

“तब अच्छा। पर मैं बनाकर लाता हूँ। मेरी ज़िद।”

“अच्छा, यही सही। स्टोव ड्रेसिंग रूम में लगा है; और सब सामान उसके पास के ताक में रखा है। हमेशा तैयार लगा ही रहता है।”

भुवन चला गया। तब रेखा भी उठी। अँगीठी में आग सुलगायी-अनुभवी हाथों की लगायी हुई लकड़ियों ने तुरन्त आग पकड़ ली; आठ-दस मिनट बाद जब भुवन ट्रे में लगी हुई काफ़ी लेकर आया, तब चटचटाती लाल शिखाओं का असम प्रकाश कमरे में नाचने लगा था। उसने कहा, “अरे-जादूगरनी!”

रेखा ने कहा, “हाँ, तुम्हारा जादू मेरे हाथ में भी चला आया है।”

आग के पास तिपाई उसने पहले ही रख दी थी। भुवन ने दो कुरसियाँ खींच कर ठीक जगह रखीं, रेखा को आदर से हाथ पकड़कर उठाया और तिपाई के पास वाली कुरसी पर बिठा दिया; फिर एक प्रश्नसूचक दृष्टि से उसकी ओर देखकर टेबल लैम्प बुझा दिया। आग के प्रकाश में उनकी और काफ़ी के बर्तनों की छायाएँ दीवार पर नाचने लगीं।

काफ़ी पीकर भुवन ने तिपाई हटा दी, अपनी कुरसी खींच कर रेखा की कुरसी के निकट कर ली। फिर मेज़ तक जाकर किताब उठाने लगा तो बोला, “मेरी किताबें बढ़ कैसे गयीं?”

चार-पाँच किताबें लिए वह लौट आया; किताबें ज़मीन पर रखकर कुछ आगे झुक कर उनके नाम देखने लगा। चार्ल्स मार्गन का 'द फाउंटेन',' आन्द्रे जीद का 'स्ट्रेट इज़ द गेट', ठाकुर की 'गीतांजलि', लुई एमो का 'मारिया शादलेन', सानुवाद 'कुमार-सम्भव', दो-एक कविता-संकलन, एक-आध और पुस्तक।

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