उपन्यास >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
वास्तविकता
के इस निर्वाह के साथ 'नदी के द्वीप' में एक आदर्शपरकता भी है। वास्तव और
आदर्श में कोई मौलिक विरोध नहीं होता, यह कहना शायद आवश्यक नहीं है। इतना
ही है कि जो आदर्श वास्तव की भूमि से नहीं उठता,वह निराधार ही रहता है,
उसे पाया नहीं जा सकता, उसकी ओर बढ़ा नहीं जा सकता, वह जीवन नहीं देता। तो
'नदी के द्वीप' में क्या आदर्श है? कदाचित् यह मुझे कहने की कोशिश भी नहीं
करनी चाहिए, क्योंकि जैसा मैंने आरम्भ में कहा, यही वह क्षेत्र है जहाँ
कथाकार की ओर नहीं, कथा की ओर देखना चाहिए। कथा से अलग आदर्श को निकाल कर
मैं कहना चाहता या कह सकता तो कथा क्यों लिखता? यों उपन्यास के आरम्भ में
सूत्र-रूप से जो उद्धरण दिये गये हैं-एक शेली का, एक स्वयं लेखक की कविता
से, वे अर्थ रखते हैं : दर्द से भी जीवन में आस्था, जीवन का आश्वासन-जो
शेली में सन्दर्भ से ध्वनित होता है; और दर्द में मँज कर व्यक्तित्व का
स्वतन्त्र विकास, ऐसा स्वतन्त्र कि दूसरों को भी स्वतन्त्र करे-जो
'अज्ञेय' के सन्दर्भ से ध्वनित होता है। आदर्श के ये दो सूत्र कथा में
हैं, चरितनायक भुवन एक को ध्वनित करता है तो मुख्य स्त्री-पात्र रेखा
दूसरे को। चन्द्रमाधव और गौरा स्वतन्त्र व्यक्ति भी हैं, और भुवन तथा रेखा
के प्रतिचित्र भी। चारों एक ही समाज या वर्ग के प्राणी हैं। पर चन्द्रमाधव
का चरित्र-विकास विकृति की ऐसी ग्रन्थियों से गुथीला हो गया है कि उसका
विवेक भी उसे कुपथ पर ले जाये, और उस की सदोन्मुखता आत्म-प्रवंचना के कारण
है। इसी में वह भुवन का प्रति-भू है। दूसरी ओर गौरा तथा रेखा भी
प्रत्यवस्थित किये गये हैं। त्याग की स्वस्थ भावना एक को दृष्टि देती है
तो दूसरी में एक प्रकार के आत्म-हनन का ही कारण बनती है-यद्यपि उस की
भावना इतनी उदात्त है कि हम उसे अपनी सहानुभूति दे सकें। यानी आप दे
सकें-क्योंकि मैंने तो सभी पात्रों को अपनी सहानुभूति दी है। भले ही
साधारण सामाजिक जीवन में कुछ से मिलना-जुलना चाहूँ, कुछ से बचना चाहूँ, पर
अपनी कृति के क्षेत्र में तो सभी मेरी समवेदना के पात्र हैं।
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