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उपन्यास >> नदी के द्वीप

नदी के द्वीप

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :149
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9706

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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।


गौरा द्वारा भुवन को :

भुवन दा,
अभी एक चिट्ठी आपको डाल आयी हूँ। उसे वापस तो नहीं लेती, पर उसमें एक बात कहना आवेश में भूल गयी थी। आपकी यात्रा निर्विघ्न और सफल हो; आप शीघ्र ही स्वदेश लौटें...और इससे आगे अपनी प्रार्थना में यह भी जोड़ दूँ, भुवन दा, कि आप स्वदेश ही नहीं, मेरे पास लौटें तो क्या मेरी प्रार्थना आपकी किसी इच्छा से प्रतिकूल चली जाएगी? वैसा हो, तो कहूँगी, तो आपकी इच्छा ही जयी हो, वही पूर्ण हो, मेरी प्रार्थना यही हो कि मेरी प्रार्थना भी आपकी इच्छा के अनुकूल हो, उसकी अनुगता हो।

प्रणत
गौरा

पुनश्च : यह चिट्ठी कलकत्ते भेज रही हूँ कि चलने तक मिल जाये।

7

रेखा द्वारा भुवन को, कुछ पत्र और पत्र-खण्ड :

भुवन,
मेरा प्याला भरने में शायद यही कसर थी - तुम भी मुझे दोषी ठहराओगे। यही सही, भुवन, यह भी सही। मैं टूट चुकी हूँ, मुझमें न शक्ति बाकी है, न धैर्य, न युयुत्सा; शायद और व्यथा पाने का भी सामर्थ्य अब नहीं है; तुम जो चाहे कह लो, मुझे कुछ नहीं होगा। और क्यों हो, किसलिए हो-कौन-सी वह आशा है जिसके कारण कोई निराशा, कोई चोट मुझे खले?

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