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उपन्यास >> नदी के द्वीप

नदी के द्वीप

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :149
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9706

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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।


...आज एक वर्ष होता है जब पहले-पहल लखनऊ में मिले थे - चन्द्रमाधव के यहाँ तुमने मुझे बाद में बताया था, तुमने मुझे क्लान्त और अपनी शक्तियों को समेटती हुई देखा था - वह क्लान्ति आज और बढ़ गयी है और समेटने की शक्ति ही अब मुझमें नहीं रही। मैं केवल स्मरण करती हूँ, और बिखर जाती हूँ - मुझे याद आती है काफ़ी हाउस की हमारी पहली ही बहस - और यह भी आज जैसे विधि का संकेत लगता है कि उस बहस में हम सत्य की वेदनामयता की बात करने लगे थे, और तुमने एक सन्दर्भ दिया था 'द पेन आफ लविंग यू इज़ आल्मोस्ट मोर दैन आइ कैन बेयर'... उस दिन पहली पंक्ति में से तुम 'डीयरेस्ट' शब्द छोड़ गये थे, चाहूँ तो मान सकती हूँ कि वह छूट जाना भी विधि का संकेत था, पर नहीं, वह नहीं, इतना ज़रूर है कि आज मैं एक शब्द और छोड़ जाऊँ 'आल्मोस्ट'-क्योंकि सचमुच यह दर्द मेरी सहन-शक्ति से परे है, मैं उसे नहीं सँभाल सकती...कोई भी नहीं सँभाल सकता शायद प्यार का दर्द, इसीलिए शायद प्यार रहता नहीं, दर्द रह जाता है-केवल ईश्वर सँभाल सकता है अगर वह-या कहूँ कि जो सँभाल सकता है वही ईश्वर है...”प्रियः प्रियायार्हसि देव सोढुम्' कितनी सार्थक वन्दना है यह ईश्वर की, वही सह सकता है, वही एक, और कोई नहीं...

भुवन,
तुम्हारी दो चिट्ठियाँ एक साथ मिली हैं - बहुत भटकती हुई कोई छः सप्ताह बाद। तो तुम जावा जा रहे हो - जा क्या रहे हो, अब तक तो पहुँच भी गये होंगे। ठीक है भुवन, जाओ, तुम्हारा मार्ग प्रशस्त हो।

हाँ, मैं हूँ सागर के ही किनारे - कदाचित् तुम भी सागर के किनारे होगे, पर ये किनारे दूसरे-दूसरे हैं - और क्या सागर भी दूसरे-दूसरे हैं भुवन? मैं दिन-भर बैठी लहरें देखती हूँ लेकिन उनकी दौड़ मानो गति-हीन, प्रेत-दौड़ हैं; उनका टकराना सुनती हूँ पर वह भी मानो शब्द-हीन, प्रेत-टकराहट है - केवल दौड़ की, टकराहट की अन्तहीनता ही सजीव है, प्रेत नहीं है।...

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