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उपन्यास >> नदी के द्वीप

नदी के द्वीप

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :149
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9706

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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।


तुम भटक रहे हो, भटकोगे, और भटकना चाहते हो, यायावार हो जाना चाहते हो। चाहते हो तो क्यों नहीं हो जाते? भुवन, मैं तो स्त्री हूँ, और मेरा स्वास्थ्य भी चौपट ही है, लेकिन मैंने भी कई बार चाहा है यायावार होकर बन्धन-हीन विचरना। पर जहाँ, जैसे, जैसी हूँ, मैं जान गयी हूँ कि वह नहीं है मेरे लिए, कि कभी-न-कभी-और शायद जल्दी ही-मुझे कहीं टिक जाना होगा; स्थिर हो जाना होगा, मान लेना होगा कि पड़ाव आ गया-इसलिए नहीं कि मेरी आकांक्षा की दौड़ वहीं तक थी, इसलिए कि मेरी सकत की दौड़ आगे नहीं है...पर तुम, तुम घूमो, महाराज, मुक्त विचरण करो, प्यार दो और पाओ, सौन्दर्य का सर्जन करो, सुखी होओ, तुम्हारा कल्याण हो...।

मैं बिलकुल ठीक हूँ; काम मैंने फिर आरम्भ कर दिया है। डा. रमेशचन्द्र के आग्रह और प्रयत्न से मैं अस्पताल से हटकर केवल व्यवस्था के काम में लग गयी हूँ : उनका आग्रह था कि मैं रोग और रोगियों के वातावरण में न रहूँ।

और मैं अब अनुभव कर रही हूँ कि ठीक ही था-उसका मेरे मन पर निरन्तर बोझ रहता था; और इस व्यवस्था के काम में बढ़ते हुए उत्तरदायित्व से कुछ प्रेरणा भी मिलती है, कुछ सान्त्वना भी।

उधर युद्ध के बादल घिर रहे हैं। तुम कब तक उधर रहोगे, भुवन? अब तो फिर जाड़े आने लगे! कभी पढ़ा था, जाड़े आते हैं तो वसन्त भी दूर नहीं है - पर अब मालूम होता है कि यह बात भी किसी 'इनफ़ीरियर फिलासफ़र' की कही हुई है, जिससे बचना चाहिए।

तुम्हारी
रेखा

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