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उपन्यास >> नदी के द्वीप

नदी के द्वीप

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :149
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9706

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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।


भुवन ने कहा था, “जी, मोटर-यात्रा से पहले कम ही खाता हूँ।” और गौरा ने साथ ही उत्तर दिया था, “जी खाने को भी रखा है पर ये तो कुछ खाते ही नहीं, और अब तो जावा से पूरे साहब होकर आये होंगे।”

भुवन ने आँख बचाकर इशारे से ही उसे घुड़क दिया था।

तीसरे पहर थोड़ी देर उसने आराम किया था, फिर चाय पी थी और फिर गौरा के पिता के साथ घूमने गया था; इस बीच गौरा ने उसका कमरा सजा दिया था। लेकिन शाम को भी गौरा से विशेष बात नहीं हुई थी, खाने पर तो होती ही क्या।

और अब...भुवन ने फिर अपने को हिलाया। इस समय निस्सन्देह गौरा बात करने आयी थी और फूल लेकर...। और उसने पूछा ही नहीं...कदाचित् वह आहत होकर चली गयी। क्यों नहीं उसे ध्यान आया? बाद में उसने कहा था, अवश्य; पर बाद में कहने से क्या फ़ायदा।

सवेरे? शायद। गौरा ने तो स्पष्ट घूमने का निमन्त्रण दिया था। शायद वही अच्छा है; सवेरे टहलते हुए बात होगी तो और ढंग की होगी, रात को कमरे में बैठे-बैठे शायद बहुत उदास हो जाती...यह नहीं कि वह वैसा चाहता...पर मन जैसा है सो तो है ही, फिर रात का अपना असर होता है...और सवेरे का अपना, टहलने का अपना...।

भुवन उठकर अँधेरे में ही कपड़े बदलने लगा। बदल चुका, तो क्षण भर जाकर खिड़की पर खड़ा रहा; बदली अभी थी, कहीं-कहीं एक-आध तारा दीखता था; यहाँ की रात, यहाँ की हवा, यहाँ की नीरवता में जावा की रात और हवा और नीरवता से कितनी भिन्नता थी-मात्रा की नहीं, प्रकार की, स्वभाव की...।

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