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उपन्यास >> नदी के द्वीप

नदी के द्वीप

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :149
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9706

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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।


5

सप्ताह बहुत छोटा होता है - बहुत जल्दी बीत गया। उसमें कुछ लम्बा था तो उनकी बहसें, लेकिन वे भी किसी परिणाम पर नहीं पहुँचीं; प्रायः ही बात-चीत के बाद परिणाम निकलता कि घूम आया जाये-या कभी-कभी गौरा सितार बजाने बैठ जाती, कभी भुवन अकेला सुनता, कभी गौरा के माता-पिता भी रहते।

नये साल के दिन भुवन भी सवेरे जाकर बहुत से फूल खरीद कर लाया, गौरा भी। गौरा पहले लौटी थी और फूल सजा रही थी जब भुवन पहुँचा; भुवन की 'अरे!' सुनकर वह उठी, भुवन के हाथों में वही-वही फूल देखकर 'अरे' का अर्थ तुरत समझती हुई उसने भुवन के हाथ से सारे फूल ले लिए और बोली, “ये सब मैं अपने कमरे में रखूँगी। आप चलकर सजा दीजिए न।”

भुवन ने कहा, “गौरा, नया वर्ष शुभ हो तुम्हारे लिए।”

“और आपके.....”

गौरा के कमरे में पहुँच कर भुवन ने एक नज़र चारों तरफ डाली; गौरा ने फूल उसे पकड़ाते हुए कहा, “ज़रा इन्हें लीजिए, मैं फूलदान ले आऊँ।” पानी-भरे फूलदान लाकर उसने खिड़की में रख दिये और बोली, “लीजिए, अब अपने मन से इन्हें सजा दीजिए।”

भुवन सजाने लगा। गौरा ने कहा, “मैं अभी आयी,” और बाहर चली गयी; भुवन के कमरे में फूल रखकर वह लौटी तो वह एकाग्रचित्त से फूल सजा रहा था, एक फूलदान उसने पलंग के सिरहाने रख दिया था, दो और सजा रहा था। गौरा का आना उसने लक्ष्य नहीं किया। वह क्षण-भर उसे निहारती रही, फिर एकाएक आगे बढ़कर उसने भुवन के पैरों में झुकते हुए धीरे-से कहा “मेरा प्रणाम लो, शिशु।”

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