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उपन्यास >> नदी के द्वीप

नदी के द्वीप

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :149
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9706

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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।


“नहीं, पूछो! आइ डोंट फ़ील एट आल। वन डज़ंट फ़ील, वन जस्ट इज़। मैं भी हूँ, होना भी काफ़ी है, अनुभूति क्यों ज़रूरी है?” रेखा थोड़ी रुकी। “लेकिन-भुवन, रमेश में यथेष्ट अण्डरस्टैडिंग है, नहीं तो...”

भुवन ने कहा, “आइ एम सो ग्लैड, रेखा।' उसने हाथ रेखा की ओर बढ़ाया। रेखा ने उसका हाथ अपने दोनों हाथों में ले लिया और धीरे-धीरे सहलाने लगी।

“भुवन, मेरा तो हुआ, पर तुम? तुम भविष्य की ओर नहीं देखते? ज़रूर देखते होगे - बल्कि मैं चाहे न देखूँ, तुम तो रह नहीं सकते, तुम्हारे मन का संगठन ही ऐसा है।”

भुवन हँसा। अब की बार रेखा ने लक्ष्य किया, उसके स्वर में जो गहराई है, वह एक हद तक शायद इसलिए भी है कि कहीं कुछ खोखला है, शून्य है - ऐसी सूनी थी वह हँसी, जैसे उसके नीचे अनुभूति या आनन्द की कोई पेंदी न हो, अधर में ही वह फूट पड़ी हो। “मैं! शायद सोचता भी-पर अभी तो ज़रूरत ही नहीं मालूम होती। वहाँ भविष्य का भरोसा लेकर कौन बैठता है जहाँ जीवन का ही भरोसा नहीं।”

“वह तो कहीं भी नहीं है - यहीं क्या भरोसा है? रोज़ सुबह होती है, सूरज निकलता है; हम आदी हो जाते हैं और मान लेते हैं कि न केवल सूरज कल निकलेगा बल्कि हम भी उसे कल देखेंगे। प्रकृति का स्थायित्व देखकर ही मानव अपने लिए स्थायित्व माँगता है, प्रकृति के रूपान्तर देखकर ही वह अपने रूपान्तर की कल्पना करता है या उनके द्वारा अमरत्व की आशा।”

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