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उपन्यास >> नदी के द्वीप

नदी के द्वीप

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :149
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9706

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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।


रेखा चुपचाप देखती रही। भुवन की युक्ति ठीक थी, पर कुछ था जो उसे स्वीकार्य नहीं हो रहा था, वह कुछ क्या है इसे वह पकड़ नहीं पा रही थी...।

रात-भर यह असमंजस उसे कोंचता रहा। रात को उसने गौरा को एक छोटा-सा पत्र लिखकर भुवन के वहाँ होने की सूचना दी और यह भी लिखा कि उसके मन की दशा अजब है, रेखा की समझ में नहीं आ रही। वह और कुछ लिखने जा रही थी पर रुक गयी; फिर उसने लिखा कि भुवन कदाचित् बंगलौर जाएगा, गौरा उसे मिले और हो सके तो उसके पास रहे - उसका मनःस्वास्थ्य यह माँगता है कि गौरा उसकी देख-भाल करे। दूसरे दिन वह रजनीगन्धा के बीस-एक डाँठों का गुच्छा लेकर फिर अस्पताल पहुँची। फूल सजाकर वह थोड़ी देर भुवन की ओर देखती रही। फिर जैसे एक बड़ा दुस्साहस कर ही डालने का निश्चय करके बोली, “भुवन, मैंने एक डिस्कवरी की है। यू आर इन लव। और मैं जानती हूँ कि किससे।”

भुवन अपने चेहरे पर हँसी फैलाता हुआ बोला, “सच? हाउ इण्टरेस्टिंग, लेकिन तुम्हें बड़ी निराशा होगी, रेखा मेरी कोई भी नर्स ऐसी रूपवती नहीं है।”

और भी दुस्साहस भर कर, लेकिन मुस्कराते हुए ही रेखा ने कहा, “टालो मत भुवन, मैं नर्सों की बात नहीं कर रही हालाँकि नर्सें सब रूपवती हैं या होंगी।” सहसा उसे बोध हुआ कि उसका दिल धक्-धक् कर रहा है, पर वह रुकी नहीं, “मेरा मतलब है गौरा।”

भुवन चमक गया। उसका चेहरा तमतमा आया, ओठों का धनु एक तीखी रेखा बन गया, वह बोला नहीं।

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