लोगों की राय

उपन्यास >> नदी के द्वीप

नदी के द्वीप

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :149
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9706

Like this Hindi book 8 पाठकों को प्रिय

390 पाठक हैं

व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।


देर तक दोनों चुप रहे। फिर गौरा ने वैसे ही भर्राये, काँपते हुए स्वर में पूछा, “क्या पढ़ रहे हो?”

“कविता-लारेंस,” कहकर भुवन ने सहसा गोद में पड़ी खुली पुस्तक बन्द कर दी।

“क्यों-पढ़ो।”

भुवन के दोनों हाथ खोजते से बढ़े, गौरा ने यन्त्रवत् अपने दोनों हाथ उठाकर उनमें रख दिये। भुवन की मुट्ठियाँ उन पर कस गयीं; उनकी जकड़ मज़बूत थी पर एक कम्पन लिए हुए; गौरा थोड़ी देर वैसे बैठी रही, फिर उसने आगे झुककर अपनी आँखें मुट्ठियों पर रख दी। भुवन ने एक हाथ छोड़कर उसका सिर धीरे-धीरे थपक दिया; उसमें कुछ निर्देश था मानो-गौरा सीधी होकर बैठ गयी। भुवन ने पूछा, “तुम्हें कब पता लगा? तुम.....”

और गौरा ने कहा, “तुम कब पहुँचे?”

भुवन भी यही कहने जा रहा था कि 'तुम कब पहुँची?' गौरा बात काट कर बीच में बोल उठी थी पर दोनों के वाक्य समाप्त एक साथ ही हुए। भुवन मुस्करा दिया, उसकी ओर देखकर गौरा मुस्करा दी, फिर सहसा हँस पड़ी, मानो कोई अवरोध हट गया, उमड़ती हुई बोली, “भुवन, मेरे भुवन दा-आप...भुवन, तुम आ गये, कहाँ खो गये थे तुम, मेरे शिशु...”

और भुवन के मन में भी एक साथ कई प्रश्न, कई वाक्य घूम गये जो उक्ति माँगते थे, पर जो कहा उसने गौरा का ही वाक्य था, “शब्द अधूरे हैं क्योंकि उच्चारण माँगते हैं...लेकिन अब भागूँगा नहीं, इतना कह दूँ...।”

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book