उपन्यास >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
“बस
अब लेकिन-वेकिन कुछ नहीं”, चन्द्र ने डपट कर कहा। “चलो आगे, बताओ सामान
कहाँ रखा है।” और जिस कुली ने रेखा का सामान उठाया था, उसी को आगे करके वह
भुवन के डिब्बे की ओर बढ़ चला।
स्मृति के पन्ने उलटते हुए भुवन
ने सोचा, यहाँ तक भी ठीक था; रुक जाना कोई असाधारण बात नहीं हुई थी और
दोनों के रुक जाने में भी कोई बात नहीं थी; अगर उसे इलाहाबाद में जरूरी
काम नहीं था तो रेखा को प्रतापगढ़ में और भी कम काम था, वह घूमती हुई और
एक जगह कुछ दिन बिताने जा रही थी। और चन्द्र दोनों का मित्र था, और खासा
दिलचस्प आदमी, उसके आग्रह का असर होना स्वाभाविक था। और इस प्रकार दोनों
रुक गये थे, और अगली शाम को उसी प्रकार उसी गाड़ी के लिए पहुँचे थे।
फिर
भीड़ थी; पर उतनी नहीं; फिर अलग-अलग डिब्बों में सवार हुआ गया। रेखा को
जनाने डिब्बे में बैठने लायक स्थान मिल गया यद्यपि बिल्कुल दरवाज़े के
पास, और भुवन ने भी अपना बक्स जमा कर अपने बैठने लायक सीट बना ली।
विदा-नमस्ते करके सीटी के साथ वह अपने डिब्बे की ओर चला और सवार हो गया।
यहाँ
तक भी ठीक था। और अगर बीच में थोड़ी-थोड़ी देर बाद गाड़ी के रुकने पर वह
रेखा के डिब्बे तक जाकर उससे एक-आध बात कर आता रहा, तो यह भी कोई ऐसी
असाधारण बात नहीं थी; यह साधारण शिष्टाचार ही है; और अग़र रात दस बजे के
बाद भी हुआ तो भी अधिक-से-अधिक कोई यह कह सकता है कि शिष्टाचार में कुछ
अनावश्यक मुस्तैदी थी, या दिखावा था। वह स्वयं यही जानता था कि रेखा बड़ी
मेधावी स्त्री है और उससे बातचीत विचारोत्तेजक है और मानसिक स्फूर्ति देती
है, बस। बातें भी वे ऐसी ही करते आये थे; और प्रतापगढ़ में जब रेखा उतर
गयी और भुवन ने कहा, “आप से भेंट कर के बहुत प्रसन्न्ता हुई। मेरा लखनऊ
प्रवास बड़ा सुखद रहा।”, तो उसने अपने स्वर में शिष्टाचार से - यद्यपि
हार्दिक शिष्टाचार, निरी औपचारिक शिष्टता नहीं - अधिक कुछ नहीं पाया था।
रेखा ने भी वैसे ही अव्यक्तिक पर सच्चे विनय से कहा था, “मैं आपकी बड़ी
कृतज्ञ हूँ और आप ने तो इस वापसी की यात्रा को भी प्रीतिकर बना दिया।”
तब?
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