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परिणीता

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :148
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9708

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‘परिणीता’ एक अनूठी प्रणय कहानी है, जिसमें दहेज प्रथा की भयावहता का चित्रण किया गया है।


ललिता- तुम भी खूब हो! डरूँगी नहीं-तुम पास न थे, मां इतनी दूर बैठी थीं, इधर बीच में एकाएक मामा यह क्या कर बैठे हैं। अब जो मुझको घर में रखने के लिए मां राजी न हो तो?

शेखर ने क्षण भर चुप रहकर कहा- सो तो सच है। मां ग्रहण न करना चाहेंगी। तुम्हारे मामा दूसरे आदमी से बहुत-से रुपये ले चुके हैं, यह समाचार वे सुन चुकी हैं। इसके सिवा दूसरी बाधा यह भी है कि अब तुम लोग ब्रह्म समाजी हो, और हम लोग हैं हिन्दू।

इसी समय अन्नाकाली ने रसोईवाली दालान से आवाज दी- छुटकी दिदिया, अम्मा बुला रही है।

जोर से ''आती हूँ'' कहकर ललिता ने फिर उसी धीमी आवाज़ में कहना शुरू किया- मामा चाहे जो हो गये हों, मैं तो वही हूँ जो तुम हो। मां अगर तुमको नहीं अलग कर सकतीं तो मुझे भी नहीं छोड़ेंगी। और, गिरीन्द्र बाबू से रुपये उधार लेने की बात जो तुम कहते हो, सो मैं उन्हें उनके रुपये फेर दूँगी। फिर जब ऋण के रूप में रुपये लिये गये हैं तब, दो दिन पहले हो या दो दिन पीछे, देने ही पडेंगे।

शेखर ने पूछा- मगर इतने रुपये पाओगी कहाँ?

ललिता ने शेखर के मुँह की ओर एक बार आँख उठा कर, दम भर चुप रहकर, कहा- तुम नहीं जानते, स्त्रियों को कहां से रुपये मिलते हैं? मैं भी वहीं से पाऊँगी।

अभी तक संयत होकर बातचीत करते रहने पर भी शेखर भीतर ही भीतर जला जा रहा था। इस दफे उसने भी आवाज कसते हुए कहा- लेकिन तुम्हारे मामा ने तुमको बेच जो डाला है!

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