सामाजिक >> परिणीता परिणीताशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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‘परिणीता’ एक अनूठी प्रणय कहानी है, जिसमें दहेज प्रथा की भयावहता का चित्रण किया गया है।
फिर भी शेखर ने एक बार यह सोचने की चेष्टा की, कि कदाचित् अपने गुप्त सन्बन्ध की बात याद करके ही ललिता ने लज्जा के मारे ऐसा व्यवहार किया है। लेकिन फिर सोचा यही कैसे सम्भव है? ऐसा होता तो इतना सब हो गया और वह क्या इतने दिनों में किसी कौशल-किसी बहाने-से एक् बात भी उससे पूछने की चेष्टा न करती? अकस्मात् दरवाजे के बाहर मां की आवाज सुन पड़ी। वे पुकारकर ऊँचे स्वर से कह रही थीं- कहां है? अभी तक तूने हाथ-मुँह नहीं धोया; शाम हो गई!
शेखर जल्दी से उठ बैठा, और इस तरह गरदन घुमाये हुए झटपट नीचे उतर गया जिसमें उसके मुँह पर मां की निगाह न पड़े।
इधर कई दिन से बहुत-सी बातें अनेक प्रकार के रूप रख कर हर घड़ी उसके मन के भीतर आती-जाती रही हैं, केवल एक ही बात को वह सोचकर नहीं देखता था कि वास्तव में दोष किस ओर है - किसका है। उसने ललिता से अब तक एक भी आशा की बात नहीं कही, अथवा उसे ऐसी कोई बात कहने का मौका नहीं दिया। बल्कि, कहीं ज्राहिर न ही पडे़, वह किसी तरह का दावा न कर बैठे, इस डर से उसकी जान सूख रही थी। तथापि सब तरह का अपराध अकेली ललिता के ही मत्थे मढ़कर बह उसके विषय में विचार कर रहा था, और आप डाह, क्रोध, अपमान और अभिमान की आग में जला करता था। जान पड़ता है, इसी तरह संसार के सभी मर्द विचार करते हैं, और इसी तरह मन में कुढ़ते या जलते हैं। जलते-जलते सात दिन बीत गये। आज भी वह सन्ध्या- काल के उपरान्त सूने कमरे के सन्नाटे में वही आग जलाकर बैठा हुआ था। एकाएक दरवाजे के पास आहट सुनकर सिर उठाकर देखते ही उसका हृदय उछल पड़ा। काली का हाथ पकड़े ललिता भीतर आई। वह नीचे फर्श पर बिछे हुए कार्पेट के ऊपर स्थिर होकर बैठ गई। काली ने कहा- शेखर दादा, हम दोनों जनी तुमको प्रणाम करने आई हैं- कल हम चली जायँगी। शेखर मुँह से कुछ कह न सका, केवल ताकता रह गया। काली फिर बोली- शेखर दादा, आपके चरणों के निकट - हमसे अनेक अपराध हुए हैं, हमने अनेक दोष किये हैं; उन सबको भूल जाना।
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