उपन्यास >> पथ के दावेदार पथ के दावेदारशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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हम सब राही हैं। मनुष्यत्व के मार्ग से मनुष्य के चलने के सभी प्रकार के दावे स्वीकार करके, हम सभी बाधाओं को ठेलकर चलेंगे। हमारे बाद जो लोग आएंगे, वह बाधाओं से बचकर चल सकें, यही हमारी प्रतिज्ञा है।
कमरा देखकर रामदास बोला, “आपका नौकर अच्छा है। सब कुछ अच्छी तरह सजाकर रखा है। यह सारा सामान मैंने ही खरीदा था। आपको और जिस चीज की जरूरत हो, बताइए, भेज दूंगा। रोजेन साहब की आज्ञा है।”
तिवारी ने मधुर स्वर में कहा, “और सामान की जरूरत नहीं है बाबू जी, यहां से सकुशल हट जाएं तो प्राण बच जाएंगे।”
उसकी बात पर किसी ने ध्यान नहीं दिया। लेकिन अपूर्व ने सुन लिया। उसने आड़ में ले जाकर पूछा, “और कुछ हुआ था क्या?”
“नहीं।”
“तब फिर ऐसी बात क्यों कहता है?”
तिवारी ने कहा, “शौक से थोडे ही कहता हूं। दोपहर भर साहब जैसी घुड़दौड़ करता रहा है, वैसी क्या कोई मनुष्य कर सकता है?”
अपूर्व मुस्कराकर बोला, “तो तू चाहता है कि वह अपने कमरे में चलने-फिरने भी न पाए? लकड़ी की छत है! अधिक आवाज होती है।”
तिवारी ने रुष्ट होकर कहा, “एक स्थान पर खड़े होकर घोड़े की तरह पैर पटकने को चलना कहा जाता है?”
अपूर्व बोला, “इससे पता चलता है कि वह शराबी है। उसने जरूर शराब पी रखी होगी।”
तिवारी बोला, “हो सकता है। मैं उसका मुंह सूंघकर देखने नहीं गया था।” फिर अप्रसन्न भाव से रसोई घर में जाते हुए बोला, “चाहे जो भी हो, इस घर में रहना नहीं होगा।”
ट्रेन का समय हो जाने पर रामदास ने विदा मांगी। पता नहीं तिवारी के अभियोग या उसके स्वामी के चेहरे से उसने कुछ अनुमान लगाया या नहीं, लेकिन जाते समय अचानक पूछ बैठा, “बाबू जी, क्या आपको इस डेरे में असुविधा है?”
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