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उपन्यास >> पथ के दावेदार

पथ के दावेदार

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :537
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9710

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हम सब राही हैं। मनुष्यत्व के मार्ग से मनुष्य के चलने के सभी प्रकार के दावे स्वीकार करके, हम सभी बाधाओं को ठेलकर चलेंगे। हमारे बाद जो लोग आएंगे, वह बाधाओं से बचकर चल सकें, यही हमारी प्रतिज्ञा है।


उसकी बात पूरी नहीं हो पाई थी कि रामदास ने सहसा उसके दोनों हाथों को अपने शक्तिशाली हाथों से पकड़कर जोर से झकझोरते हुए कहा, “मैं यही चाहता हूं बाबू जी! उत्पात के भय से हम लोग बहुत भाग चुके हैं, लेकिन अब नहीं।”

सांझ होने में अभी देर थी। एक घंटे तक किसी ट्रेन का समय भी नहीं था। इसलिए स्टेशन के दूसरी ओर वाले प्लेटफार्म पर यात्रियों की भीड़ अधिक नहीं थी। अपूर्व टहलते हुए घूमने लगा। अचानक उसके मन में विचार आया कि कल से आज तक इस एक ही दिन में जीवन न जाने कैसे सहसा कई वर्ष पुराना हो गया है। यहां पर मां नहीं है, भाई नहीं है। भाभियां नहीं हैं। स्नेह की छाया भी कहीं नहीं है। कर्मशाला के असंख्य चक्र दाएं-बाएं, सिर के ऊपर, पैरों के नीचे, चारों ओर वेग से घूमते हुए चल रहे हैं। तनिक भी असमर्थ होने पर रक्षा पाने का कहीं कोई उपाय नहीं है।

उसकी आंखों की कोरें गीली हो उठीं। कुछ दूरी पर काठ की एक बेंच थी। उस पर बैठकर आंखें पोंछ रहा था कि सहसा पीछे से एक जोर का धक्का खाकर पेट के बल जमीन पर जा गिरा। किसी तरह उठकर खड़ा होते ही देखा पांच-छ: फिरंगी बदमाश लड़के हैं। किसी के मुंह में सिगरेट है तो किसी के मुंह में पाइप है और वह दांत निकालकर हंस रहे थे। शायद वही लड़का जिसने धक्का मारा था, बेंच के ऊपर लिखे अक्षरों को दिखाकर बोला, “साले! यह साहब लोगों के वास्ते है, तुम्हारे लिए नहीं।”

लज्जा, क्रोध तथा अपमान से अपूर्व की गीली आंखें लाल हो उठीं, होंठ कांपने लगे।

“साला, दूधवाला, आंखें दिखाता है?” सब एक साथ ऊंचे स्वर से हंस पड़े। एक ने उसके मुंह के सामने आकर अत्यंत अश्लील ढंग से सीटी बजाई।

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