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उपन्यास >> पथ के दावेदार

पथ के दावेदार

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :537
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9710

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हम सब राही हैं। मनुष्यत्व के मार्ग से मनुष्य के चलने के सभी प्रकार के दावे स्वीकार करके, हम सभी बाधाओं को ठेलकर चलेंगे। हमारे बाद जो लोग आएंगे, वह बाधाओं से बचकर चल सकें, यही हमारी प्रतिज्ञा है।


“कैसे निकल गया?”

निमाई बाबू बोले, 'अगर यही जानता तो वह कैसे निकल जाता? सुबह तीन सौ यात्री, बीस-पच्चीस फिरंगी साहब, उड़िया, मद्रासी, पंजाबी सौ-डेढ़ सौ के लगभग रहें होंगे। शेष बर्मी थे। पता नहीं किसकी पोशाक पहने और किसकी भाषा बोलते-बोलते बाहर निकल गया। समझ गए न भैया, हम तो पुलिस वाले हैं। पहचानने का उपाय नहीं है कि वह योरोपियन हैं या बंगाली। जगदीश बाबू संदेह में लगभग छ: बंगालियों को पकड़कर थाने में ले गए हैं। एक आदमी का चेहरा उनके चेहरे से मेल खा रहा है, ऐसा जान पड़ता है। लेकिन जान पड़ने से ही क्या होता है। वह नहीं है। क्या तुम चलोगे भैया? एक बार उस आदमी को देखोगे?”

अपूर्व की छाती धड़क उठी। बोला, 'अगर आप उसे मारना-पीटना चाहते हैं तो मैं नहीं जाना चाहता।”

निमाई बाबू ने हंसकर कहा, “इतने आदमियों को तो हमने चुपचाप छोड़ दिया और यह बेचारे बंगाली हैं। स्वयं बंगाली होते हुए क्या मैं इन पर अत्याचार करूंगा? अरे भैया, पुलिस में सभी बुरे ही नहीं होते। मुंह बंद करके जितना दु:ख हमें सहना पड़ता है, अगर तुम जानते, तो अपने इस दरोगा चाचा से इतनी घृणा न कर पाते अपूर्व।'

अपूर्व बोला, “आप अपना कर्त्तव्य पालन करने आए हैं। फिर आपसे घृणा क्यों करूंगा चाचा?” कहकर उनके चरण छू लिए।

निमाई बाबू ने प्रसन्न होकर आशीर्वाद दिया और बोले, “चलो, जरा जल्दी चलें। वह लोग भूख-प्यास से दु:खी हो रहे होंगे। थोड़ी-बहुत जांच करके छोड़ दिया जाएगा।”

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