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उपन्यास >> पथ के दावेदार

पथ के दावेदार

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :537
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9710

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हम सब राही हैं। मनुष्यत्व के मार्ग से मनुष्य के चलने के सभी प्रकार के दावे स्वीकार करके, हम सभी बाधाओं को ठेलकर चलेंगे। हमारे बाद जो लोग आएंगे, वह बाधाओं से बचकर चल सकें, यही हमारी प्रतिज्ञा है।


उनका सिर से पैर तक बार-बार निरीक्षण करके अपूर्व ने कहा, “चाचा जी इस आदमी को आप कोई भी बात पूछे बिना छोड़ दीजिए। जिसे आप खोज रहे हैं, वह आदमी यह नहीं है। इसकी जमानत मैं देने को तैयार हूं।”

निमाई बाबू ने हंसकर पूछा, “तुम्हारा नाम क्या है जी?'

“मेरा नाम गिरीश महापात्र है।”

“एकदम महापात्र - तुम तो तेल की खान में काम करते थे? अब रंगून में ही रहोगे? तुम्हारे बक्स और बिस्तर की तलाशी तो हो चुकी है। देखूं तुम्हारे पर्स और जेब में क्या है?

उसके पर्स से एक रुपया और छ: आने निकले। जेब से लोहे का कंपास नापने के लिए लकड़ी का फुटरूल, कुछ बीड़ियां, एक दियासलाई और गांजे की चिलम निकली।

निमाई बाबू ने पूछा, “तुम गांजा पीते हो?”

उसने संकोच से उत्तर दिया, “जी नहीं।”

“तब यह चीज जेब में क्यों है?”

“रास्ते में पड़ी थी। उठा ली। किसी के काम आ जाएगी।”

तभी जगदीश बाबू कमरे में आ गए। निमाई बाबू ने हंसकर कहा, “देखो जगदीश, यह कितने परोपकारी व्यक्ति हैं। किसी के काम आ जाए, यह सोचकर इन्होंने गांजे की चिलम रास्ते से उठाकर रख ली है।” यह कहकर उन्होंने उसके दाएं हाथ के अंगूठे को देखकर हंसते हुए कहा, “गांजा पीने का चिन्ह यह है भैया 'पीता हूं', कह देने से काम चल जाए। कितने दिन और जीना है। यही तो है तुम्हारा शरीर। बूढ़े की बात मानो, अब मत पीना।”

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