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उपन्यास >> पथ के दावेदार

पथ के दावेदार

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :537
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9710

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हम सब राही हैं। मनुष्यत्व के मार्ग से मनुष्य के चलने के सभी प्रकार के दावे स्वीकार करके, हम सभी बाधाओं को ठेलकर चलेंगे। हमारे बाद जो लोग आएंगे, वह बाधाओं से बचकर चल सकें, यही हमारी प्रतिज्ञा है।


“जितना जानता हूं-कुशल ही है।”

रामदास ने फिर कोई प्रश्न नहीं किया। टिफिन के समय दोनों एक साथ ही जलपान करते थे। रामदास की पत्नी ने एक दिन अपूर्व से अत्यंत आग्रह से अनुरोध किया था कि जितने दिनों तक आपकी मां या घर की कोई और आत्मीय स्त्री इस देश में आकर डेरे की उपयुक्त व्यवस्था नहीं करती-उतने दिनों तक इस छोटी बहिन के हाथ की बनाई हुई थोड़ी-सी मिठाई आपको रोजाना लेनी ही पड़ेगी। अपूर्व सहमत हो गया था। ऑफिस का एक ब्राह्मण चपरासी वह सब ला देता था। आज भी जब वह पास के एकांत कमरे में भोजन सामग्री सजाकर रख गया, तब भोजन करने के लिए बैठते ही अपूर्व ने प्रसंग छेड़ दिया, “कल मेरे डेरे पर चोरी हो गई। सब कुछ जा सकता था। लेकिन ऊपर वाली मंजिल पर रहने वाली क्रिश्चियन लड़की की कृपा से रुपए-पैसे के अतिरिक्त और सब कुछ बच गया।” फिर सब कुछ विस्तार से सुनाने के बाद, कहा, “वास्तव में वह ऐसी कुशल लड़की है, ऐसा लगता नहीं था।”

रामदास ने पूछा, “इसके बाद?”

अपूर्व ने कहा, “तिवारी घर में था नहीं। बर्मी नाच देखने चला गया था। इसी बीच यह घटना हो गई। उसका विश्वास है कि यह काम उस लड़की के अतिरिक्त किसी और ने नहीं किया है। मेरा भी कुछ-कुछ ऐसा ही अनुमान है। चोरी भले ही न करे लेकिन सहायता अवश्य की है।”

“इसके बाद?”

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