उपन्यास >> पिया की गली पिया की गलीकृष्ण गोपाल आबिद
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भारतीय समाज के परिवार के विभिन्न संस्कारों एवं जीवन में होने वाली घटनाओं का मार्मिक चित्रण
तुम जो देख रहे होते हो।
परन्तु जब अकस्मात आभास होता है कि मैं अकेली हूँ और तुम मुझसे बहुत दूर हो और कोई आँखें मेरे रूप को देखने के लिए नहीं और कोई कोमल हाथ मेरी बन्द पलकों को छूने के लिए नहीं हैं और कोई आवाज मेरे सौन्दर्य की प्रशंसा के पुल बाँधने के लिए नहीं है तो लगता है कि मैं निर्जीव हो गई हूँ। मुझमें प्राण ही नहीं हैं।
तब मैं नहीं जानती क्या करूँ? रोऊँ? हँसू? चुपचाप सो जाऊँ? क्या करूँ? कुछ होता नहीं? कुछ कर पाती नहीं। तुम्ही बताओ मेरे देवता इस एकाकीपन में अपने-आप कुछ तय कर पाती नहीं।
कभी सोती हूँ, कभी जागती हूँ, कभी हँसती हूँ, कभी रोती हूँ। कभी तुमसे कुछ कहतीं हूँ औऱ तुम्हारे उत्तर की प्रतीक्षा करती हूँ।
कभी उसी तरह तुम्हें छेड़ती हूँ जब तुम मुझे बुलाया करते थे और मैं बाहर माँ के पास बैठी होंठ बनाकर तुम्हें तँग करती थी औऱ तुम हाथ जोड़-जोड़ कर मुझे अपने कमरे में आने के लिए कहते थे।
कोई देखे तो समझे मैं पागल हो गई हूँ। मैं अपने होश खो चुकी हूँ।
हाँ, मेरे सपने में होश खो चुकी हूँ। यह एकाकीपन मुझे काटने को दौड़ता है। यह तन्हाई मुझसे सहन नहीं होती।
नहीं जानती तुम क्यों इतनी कठोर सजा दे रहे हो। परन्तु सच कहती हूँ तुम्हारे बिना तो मेरा दम घुटता है।
क्या तुम मुझे अपने पास नहीं बुला सकते?
सुधा
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