उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
एकाएक हवा का एक झोंका कितनी ही रेत उड़ाता हुआ मेरे शरीर पर से होकर निकल गया; और वह खत्म भी होने नहीं पाया कि दूसरा और फिर तीसरा भी, ऊपर से होकर निकल गया। मन में सोचने लगा कि भला यह क्या है। इतनी देर तक तो लेश-भर भी हवा न थी। अपने आप चाहे कितना ही क्यों न समझूँ और समझाऊँ, फिर भी यह संस्कार, कि मरने के बाद भी कुछ अज्ञात सरीखा रहता है, हमारे हाड़-मांस में ही भिदा हुआ है, और जब तक हाड़-मांस हैं तब तक वह भी है, फिर चाहे मैं उसे स्वीकार करूँ चाहे न करूँ। इसलिए उस हवा के झोंके ने केवल रेत और धूल ही नहीं उड़ाई, किन्तु मेरे उस मज्जागत गुप्त संस्कार पर भी चोट पहुँचाई। क्रमश: धीरे-धीरे कुछ और जोर से हवा चलने लगी। बहुत से आदमी शायद यह नहीं जानते कि मृत मनुष्य की खोपड़ी में से हवा के गुजरने से ठीक दीर्घ श्वास छोड़ने का-सा शब्द होता है। देखते ही देखते आसपास, सामने पीछे, चारों ओर से दीर्घ उसासों की झड़ी-सी लग गयी। ठीक ऐसा लगने लगा कि मानो कितने ही आदमी मुझे घेरकर बैठे हैं और लगातार जोर-जोर से हाय-हाय करके उसासें ले रहे हैं; और अंगरेजी में जिसे 'अन्कैनी फीलिंग' (अनमना-सा लगना) कहते हैं, ठीक उसी किस्म की एक आस्वस्ति या बेचैनी सारे शरीर को झकझोर गयी। चमगीदड़ का वह बच्चा तब भी चुप नहीं हुआ था। पीछे-पीछे मानो वह और भी अधिक रिरियाने लगा। मुझे अब मालूम होने लगा कि मैं भयभीत हो रहा हूँ। बहुत जानकारी के फलस्वरूप यह खूब जानता था कि जिस स्थान में आया हूँ वहाँ, समय रहते, यदि भय को दबा न सका, तो मृत्यु तक हो जाना असम्भव नहीं है। वास्तव में इस तरह की भयानक जगह में, इसके पहले, मैं कभी अकेला नहीं आया था। स्वच्छन्दता से जो यहाँ अकेला आ सकता था, वह था इन्द्र - मैं नहीं। अनेकों बार उसके साथ अनेकों भयानक स्थानों में जा-आने के कारण मेरी यह धारणा हो गयी थी कि इच्छा करने पर मैं स्वयं भी उसी के समान ऐसे सभी स्थानों में अकेला जा सकता हूँ। किन्तु, वह कितना बड़ा भ्रम था! और मैं केवल उसी झोंक में उसका अनुकरण करने चला था।
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