उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
|
7 पाठकों को प्रिय 337 पाठक हैं |
शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
मैंने उल्लास से चिल्लाकर उत्तर देना चाहा, किन्तु कण्ठ से आवाज नहीं निकली। प्रवाद है कि भूत-प्रेत जाते समय कुछ-न-कुछ नष्ट कर जाते हैं। जो मेरे पीछे था, वह मेरा कण्ठ स्वर नष्ट करके ही बिदा हुआ था।
रतन तथा और भी तीन आदमी हाथ में लालटेनें और लट्ठ लिये हुए समीप आ उपस्थित हुए। उनमें एक तो था छट्टूलाल जो तबला बजाया करता था, दूसरा था प्यारी का दरबान, और तीसरा गाँव का चौकीदार।
रतन बोला, “चलिए, तीन बजते हैं।”
“चलो” कहकर मैं आगे हो लिया। रास्ता चलते-चलते रतन कहने लगा, “बाबू, धन्य है आपके साहस को। हम चार जने हैं फिर भी जिस तरह डरते-डरते यहाँ आए हैं, उसका वर्णन नहीं हो सकता।”
“तुम आए क्यों?”
रतन बोला, “रुपयों के लोभ से। हम सबको एक-एक महीने की तनख्वाह जो नकद मिली है!” इतना कहकर वह मेरे पास आया और गला धीमा करके बोला, “आपके चले आने पर देखा, माँ बैठी रो रही हैं। मुझसे बोली, “रतन, न जाने का होनहार है भइया, तुम लोग पीछे-पीछे जाओ। मैं तुम सबको एक-एक महीने की तनख्वाह इनाम दूँगी।” मैं बोला, “छट्टूलाल और गणेश को साथ लेकर मैं जा सकता हूँ माँ, परन्तु रास्ता तो मैंने देखा ही नहीं है।” इसी समय चौकीदार ने हाँक दी। माँ बोली, “उसे बुला ले रतन, वह जरूर रास्ता जानता होगा।” बाहर जाकर मैं उसे बुला लाया। चौकीदार जब नकद छ: रुपये पा गया, तब रास्ता दिखाता हुआ ले आया। अच्छा बाबूजी, “आपने छोटे बच्चे का रोना सुना है?” इतना कहकर काँपते हुए रतन ने मेरे कोट के पीछे का छोर पकड़ लिया। कहने लगा, “हमारे गणेश पाण्डे ब्राह्मण हैं, इसी से हम लोग आज बच गये, नहीं तो...”
|