उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
|
7 पाठकों को प्रिय 337 पाठक हैं |
शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
यह नाम मैंने सुना था; कहा, “सतूया का टीला तो 'घोर' नाले के सामने है, वह तो बहुत दूर है।”
इन्द्र ने उपेक्षा के भाव से कहा, “कहाँ, बहुत दूर है? छ:-सात कोस भी तो न होगा! तैरते-तैरते यदि हाथ भर आवें तो चित्त होकर सुस्ता लेना; इसके सिवाय, मुर्दे जलाने के काम आए हुए बहुत-से बड़े-बड़े लक्कड़ भी तो बहते मिल जाँयगे।”
आत्म-रक्षा का जो सरल रास्ता था सो उसने दिखा दिया, उसमें प्रतिवाद करने की कोई गुंजाइश नहीं थी। उस अंधेरी रात में, जिसमें दिशाओं का कोई चिह्न नजर न आता था, और उस तेज जल-प्रवाह में, जिसमें जगह-जगह भयानक आवत्त पड़ रहे थे, सात कोस तक तैरकर जाना और फिर भोर होने की प्रतीक्षा करते रहना! सवेरे से पहले इस तरफ के किनारे पर चढ़ने का कोई उपाय नहीं। दस-पन्द्रह हाथ ऊँचा खड़ा हुआ बालू का कगारा है, जो टूटकर सिर पर आ सकता है,- और इसी तरफ गंगा का प्रवाह भीषण टक्करें लेता हुआ अर्ध्दवृत्ताकार दौड़ा जा रहा है।
वस्तुस्थिति का अस्पष्ट आभास पाकर ही मेरा विस्तृत वीर-हृदय सिकुड़कर बिन्दु जैसा रह गया। कुछ देर तक डाँड़ चलाकर मैं बोला, “किन्तु हमारी नाव का क्या होगा?”
इन्द्र बोला, “उस दिन भी मैं ठीक इसी तरह भागा था, और उसके दूसरे ही दिन आकर नाव निकाल ले गया था - कह दिया था कि घाट पर से डोंगी चोरी करके कोई और ले आया होगा - मैं नहीं लाया।”
|