उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
इन्द्र ने एक ओर धक्का देकर, उसे कुछ और भी अन्दर ले जाते हुए कहा, “चुप, सालों को मालूम हो गया है- चार नावों को खोलकर साले यहीं आ रहे हैं-वह देखो।” इन्द्र ठीक कह रहा था। जोर के साथ जल को काटती और 'छप-छप्' शब्द करती हुई तीन नौकाएँ हमें निगल जाने के लिए कृष्णकाय दैत्यों के समान दौड़ी आ रही थीं। उस तरफ तो जाल से रास्ता बन्द था; और इस तरफ से ये लोग आ रहे थे- भागकर छुटकारा पाने का जरा-सा भी अवकाश नहीं था। इस मकई के खेत के बीच अपने आपको छिपाया जा सकेगा, यह भी मुझे सम्भव नहीं जान पड़ा।
“अब क्या होगा भाई।” कहते-कहते ही अदम्य वाष्पोच्छवास से मेरा कण्ठ रुद्ध हो गया। इस अन्धकार में, इस पिंजरे के भीतर, अगर ये लोग हमारा खून करके भी इस खेत में गाड़ दें, तो इन्हें कौन रोकेगा?”
इसके पहले पाँच-छह बार इन्द्र 'चोरी की विद्या बड़ी विद्या है', इस बात को सप्रमाण सिद्ध करके निर्विघ्न निकल गया था; इतने दिन, पीछा किये जाने पर भी हाथ न आया था, किन्तु आज?
उसने मुख से कहा कि, “डर की कोई बात नहीं है।” किन्तु मानो गला उसका काँप गया। किन्तु वह रुका नहीं, प्राण-प्रण से लग्गी ठेलकर धीरे-धीरे भीतर छिपने की चेष्टा करने लगा। समस्त टीका जलमय हो गया था। उसके ऊपर आठ-आठ, दस-दस हाथ लम्बे मकई और ज्वार के पेड़ थे और भीतर हम दोनों चोर। कहीं तो पानी छाती तक था, कहीं कमर तक और कहीं घुटनों से अधिक नहीं। ऊपर निबिड़ अन्धकार और आगे-पीछे दायें-बायें निर्भेद्य जंगल। लग्गी कीचड़ में धँसने लगी और डोंगी अब एक हाथ भी आगे नहीं बढ़ती। पीछे से धीवरों की अस्पष्ट बातचीत कानों में आने लगी। इस बात में अब जरा भी संशय नहीं रहा कि कुछ संदेह करके ही वे लोग चले हैं और अब भी खोजते फिर रहे हैं।
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