उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
“धन्य है रे लड़के, तुझे!” कहकर बुआ एक नि:श्वास डालकर चुप हो रहीं। वंशी की ध्वानि क्रमश: सुस्पष्ट होती गयी और फिर धीरे-धीरे अस्पष्ट होती हुई दूर जाकर विलीन हो गयी।
यही था वह इन्द्रनाथ। उस दिन तो मैं यह सोचता रहा था कि क्या ही अच्छा होता, यदि इतना अधिक बल मुझमें भी होता और मैं भी इसी तरह मार-पीट कर सकता और आज रात्रि को जब तक, सो न गया, तब तक यही कामना करता रहा कि यदि किसी तरह ऐसी वंशी बजा सकता!
परन्तु उससे सद्भाव किस तरह पैदा करूँ? वह तो मुझसे बहुत ऊँचे पर है। उस समय वह स्कूल में भी न पढ़ता था। सुना था कि हेडमास्टर साहब ने अन्याय करके उसके सिर पर ज्यों ही गधे की टोपी लगाने का आयोजन किया, त्यों ही वह मर्माहत हो, अकस्मात् हेडमास्टर की पीठ पर एक धौल जमाकर, घृणा भाव से स्कूल की रेलिंग फाँदता हुआ घर भाग आया और फिर गया ही नहीं। बहुत दिनों बाद उसी के मुँह से सुना था कि वह एक न कुछ अपराध था। हिंदुस्तानी पंडितजी को क्लास के समय में ही नींद आने लगती थी, सो एक बार जब वे नींद ले रहे थे तब, उनकी गाँठ बँधी चोटी को उसने कैंची से काटकर जरा छोटा भर कर दिया था! और उससे उनकी विशेष कुछ हानि भी नहीं हुई, क्योंकि पण्डितजी जब घर पहुँचे तब अपनी चोटी अपनी चपकन की जेब में ही पड़ी हुई मिल गयी! वह कहीं खोई नहीं गयी, फिर भी पंडितजी का गुस्सा शान्त क्यों न हुआ और क्यों वे हेडमास्टर साहब के पास नालिश करने गये- यह बात आज तक भी इन्द्र की समझ में नहीं आई। परन्तु फिर भी यह बात वह ठीक समझ गया था कि स्कूल से रेलिंग फाँदकर घर आने का रास्ता तैयार हो जाने पर फिर फाटक में से वापिस लौटकर जाने का रास्ता प्राय: खुला नहीं रह जाता। और फाटक का रास्ता खुला रहा या नहीं रहा, यह देखने की उत्सुकता भी, उसे बिल्कुल नहीं हुई। यहाँ तक कि सिर पर 10-20 अभिभावकों के होने पर भी, उनमें से कोई भी, उसका मुँह किसी भी तरह फिर विद्यालय की ओर नहीं फेर सका।
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