उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
“मेरे पिता बड़े आदमी हैं। उनके कोई लड़का नहीं है। हम सिर्फ दो बहनें थीं। इसीलिए, मेरे पिता ने मेरे पति को एक दरिद्र के घर से लाकर, अपने पास रखकर, पढ़ा-लिखाकर 'आदमी' बनाना चाहा था। वे उन्हें पढ़ा-लिखा तो अवश्य सके, किन्तु 'आदमी' नहीं बना सके। मेरी बड़ी बहन विधवा होकर घर ही रहती थी- उसी की हत्या करके वे एक दिन लापता हो गये। यह दुष्ट कर्म उन्होंने क्यों किया, इसका हेतु, तुम अभी बच्चे हो, इसलिए न समझ सकोगे, फिर भी किसी दिन जान लोगे। पर कहो तो श्रीकान्त, यह दु:ख कितना बड़ा है? यह लज्जा कितनी मर्मान्तिक है? फिर भी तुम्हारी जीजी ने सब कुछ सह लिया। किन्तु पति बनकर जिस अपमान की अग्नि को उन्होंने अपनी स्त्री के हृदय में जला दिया था उस ज्वाला को तुम्हारी जीजी आज तक भी बुझा नहीं सकी। पर जाने दो उस बात को-
“उक्त घटना के सात वर्ष के बाद मैं उन्हें फिर देख पाई। जिस वेश में तुमनें उन्हें देखा था उसी वेश में वे हमारे घर के सामने साँप का खेल दिखा रहे थे। उन्हें और कोई तो नहीं पहिचान सका, किन्तु मैंने पहिचान लिया। मेरी आँखों को वे धोखा नहीं दे सके। सुना है कि यह दु:साहस उन्होंने मेरे लिए ही किया था। परन्तु यह झूठ है! फिर भी, एक दिन गहरी रात में, खिड़की का द्वार खोलकर मैंने पति के लिए ही गृह-त्याग कर दिया। किन्तु सबने यही सुना, यही जाना कि अन्नदा कुल को कलंक लगाकर घर से निकल गयी।
“यह कलंक का बोझा मुझे हमेशा ही अपने ऊपर लादे फिरना होगा। कोई उपाय नहीं है क्योंकि, पति के जीवित रहते तो अपने आपको प्रकट नहीं कर सकी-पिता को पहचानती थी; वे कभी, किसी तरह भी, अपनी संतान की हत्या करने वाले को क्षमा नहीं कर सकते। किन्तु आज यद्यपि वह भय नहीं है - आज जाकर यह सब हाल उनसे कह सकती हूँ, किन्तु इस पर, इतने दिनों बाद, कौन विश्वास करेगा? इसलिए पितृ-गृह में मेरे लिए अब कोई स्थान नहीं है। और फिर, अब मैं मुसलमानिन हूँ।
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