उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
इन्द्र बोला, “ऐसा नहीं, हम लोग नाव पर चलेंगे। मैं निरुत्साहित हो गया, क्योंकि, गंगा में नाव को उस ओर खेकर ले जाना पड़ेगा, और इसलिए बहुत देर हो जाने की सम्भावना थी। शायद समय पर पहुँचा न जा सके। इन्द्र बोला, “हवा तेज है, देर न होगी। हमारे नवीन भइया कलकत्ते से आए हैं, वे गंगा से ही जाना चाहते हैं।”
खैर, दाँड लेकर, पाल तानकर ठीक तरह से हम लोग नाव में बैठ गये- बहुत देर करके नवीन भइया घाट पर पहुँचे। चन्द्रमा के आलोक में उन्हें देखकर मैं तो डर गया। कलकत्ते के भयंकर बाबू! रेशम के मोजे, चमचमाते पम्प शू, ऊपर से नीचे तक ओवरकोट में लिपटे हुए, गले में गुलूबन्द, हाथ में दस्ताने, सिर पर टोपी - शीत के विरुद्ध उनकी सावधानी का अन्त नहीं था। हमारी उस साधाकी डोंगी को उन्होंने अत्यन्त 'रद्दी' कहकर अपना कठोर मत जाहिर कर दिया; और इन्द्र के कन्धों पर भार देकर तथा मेरा हाथ पकड़कर, बड़ी मुश्किल से, बड़ी सावधानी से, वे नाव के बीच में जाकर सुशोभित हो गये।
“तेरा नाम क्या है रे?”
डरते-डरते मैंने कहा, “श्रीकान्त।”
उन्होंने आक्षेप के साथ मुँह बनाकर कहा, “श्रीकान्त - सिर्फ 'कान्त' ही काफी है। जा हुक्का तो भर ला। अरे इन्द्र, हुक्का-चिलम कहाँ है? इस छोकरे को दे, तमाखू भर दे!”
अरे बाप रे! कोई अपने नौकर को भी इस तरह की विकट भाव-भंगी से आदेश नहीं देता। इन्द्र अप्रतिभ होकर बोला, “श्रीकान्त, तू आकर कुछ देर डाँड़ पकड़ रख। मैं हुक्का भरे देता हूँ।”
उसका जवाब न देकर मैं खुद ही हुक्का भरने लगा। क्योंकि वे इन्द्र के मौसेरे भाई थे, कलकत्ते के रहने वाले थे और हाल ही में उन्होंने एल.ए. पास किया था। परन्तु मन मेरा बिगड़ उठा। तमाखू भरकर हुक्का हाथ में देते ही उन्होंने प्रसन्न मुख से पीते-पीते पूछा, “तू कहाँ रहता है रे कान्त? तेरे शरीर पर वह काला-काला सा क्या है रे? रैपर है? आह! रैपर की क्या ही शोभा है। इसके तेल की बास से तो भूत भी भाग जावें! छोकरे-फैलाकर बिछा तो दे यहाँ उसे, बैठें उस पर।”
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