उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
इन्द्र बोला, “सामने ही एक खूब बड़ी बस्ती है नूतन भइया, सब चीजें मिलती हैं।”
“तो फिर चला चल - अरे छोकरे, जरा खींच न जोर से - क्या खाने को नहीं पाता? इन्द्र, बोल न तेरे इस साथी से, थोड़ा और जोर करके खींच ले चले?”
इन्द्र ने अथवा मैंने किसी ने इसका जवाब नहीं दिया। जिस तरह चल रहे थे उसी तरह चलते हुए हम थोड़ी देर में एक गाँव के पास जा पहुँचे। यहाँ पर किनारा ढालू और विस्तृत होता हुआ जल में मिल गया था। नाव को बलपूर्वक धक्का देकर, उथले पानी में करके, हम दोनों ने एक आराम की साँस ली।
बाबू साहब बोले, “हाथ-पैर कुछ सीधे करना होगा। उतरना चाहता हूँ।” अतएव इन्द्र ने उन्हें कन्धों पर उठाकर नीचे उतार दिया। वे ज्योत्स्ना के आलोक में गंगा की शुभ्र रेती पर चहलकदमी करने लगे।
हम दोनों जनें उनकी क्षुधा-शान्ति के उद्देश्य से गाँव के भीतर घुसे। यद्यपि हम लोग जानते थे कि इतनी रात को इस दरिद्र खेड़े में आहार-संग्रह करना सहज काम नहीं है तथापि चेष्टा किये बगैर भी निस्तार नहीं था। इस पर, अकेले रहने की भी उनकी इच्छा नहीं थी। इस इच्छा के प्रकाशित होते ही इन्द्र उसी दम आह्नान करके बोला, “नवीन भइया, अकेले तुम्हें डर लगेगा - हमारे साथ थोड़ा घूमना भी हो जायेगा। यहाँ कोई चोर-ओर नहीं है, नाव कोई नहीं ले जायेगा। चले न चलो।”
नवीन भइया अपने मुँह को कुछ विकृत करके बोले, “डर! हम लोग दर्जी पाड़े के लड़के हैं - यमराज से भी नहीं डरते - यह जानते हो? फिर भी नीच लोगों की डर्टी (गन्दी) बस्ती में हम नहीं जाते। सालों के शरीर की बू यदि नाक में चली जाय तो हमारी तबियत खराब हो जाए।” वास्तव में उनका मनोगत अभिप्राय यह था कि मैं उनके पहरे पर नियुक्त होकर उनका हुक्का भरता रहूँ।
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