उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
परवाना लेकर छोटे भइया हँसते हुए ज्यों ही बाहर गये त्यों ही जतीन भइया ने लौटकर हाथ का टिकट वापस दे दिया। मँझले भइया ने घड़ी देखकर और समय मिलाकर एक रजिस्टर बाहर निकाला और उसमें वह टिकट गोंद से चिपका दिया। यह सब सामान उनकी हाथ की पहुँच के भीतर ही रक्खा रहता था। सप्ताह सप्ताह होने पर इन सब टिकटों को सामने रखकर कैफियत तलब की जाती थी कि क्यों अमुक दिन तुमने इजाजत से अधिक समय लगा दिया।
इस प्रकार मँझले भइया की अत्यन्त सतर्कता और श्रृंखलाबद्धता से- हमारा और उनका खुद का-किसी का जरा-सा भी समय नष्ट न होने पाता था। इस तरह प्रतिदिन, डेढ़ घण्टा, खूब पढ़ लेने के उपरान्त, जब हम लोग रात के 9 बजे घर में सोने को आते थे तब निश्चय ही माता सरस्वती हमें घर की चौखट तक पहुँचा जाती थीं; और दूसरे दिन स्कूल की कक्षा से जो सब सम्मान सौभाग्य प्राप्त करके हम घर लौटते थे वह तो आप समझ ही गये होंगे। परन्तु मँझले भइया का दुर्भाग्य कि उनके बेवकूफ परीक्षक उन्हें कभी न चीह्न सके! वे निज की तथा पराई शिक्षा-दीक्षा के प्रति इतना प्रबल अनुराग तथा समय के मूल्य के सम्बन्ध में अपने उत्तरदायित्व का इतना सूक्ष्म खयाल रखते थे फिर भी, वे उन्हें बराबर फेल ही करते गये। इसे ही कहते हैं अदृष्ट का अन्धा न्याय-विचार। खैर, जाने दो - अब उसके लिए दुखी होने से क्या लाभ?
उस रात्रि को भी घर के बाहर वही घना अन्धकार, बरामदे में तन्द्राभिभूत वे दोनों बुङ्ढे और भीतर दीपक के मन्द प्रकाश के सम्मुख गम्भीर अध्ययन में लगे हुए हम चार प्राणी थे।
छोटे भइया के लौट आते ही प्यास के मारे मेरी छाती एकबारगी फटने लगी। इसीलिए टिकट पेश करके मैं हुक्म की राह देखने लगा। मँझले भइया उसी टिकटों वाले रजिस्टर के ऊपर झुककर परीक्षा करने लगे कि मेरा पानी पीने के लिए जाना नियम-संगत है या नहीं - अर्थात् कल परसों किस परिमाण में पानी पिया था।
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