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उपन्यास >> श्रीकान्त

श्रीकान्त

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :598
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9719

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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास


परन्तु, पाठकों को यह खबर देना आवश्यक है कि भगवान भी उन पर क्रुद्ध हो गये थे। इस तरफ के राह-घाट, दुकान-हाट, सब इन्द्र के जाने हुए थे। वह जाकर एक मोदी की दुकान पर उपस्थित हो गया। परन्तु दुकान बन्द थी और दुकानदार ठण्ड के भय से दरवाजे-खिड़कियाँ बन्द करके गहरी निद्रा में मग्न था। नींद की वह गहराई कितनी अथाह होती है, सो उन लोगों को लिखकर नहीं बताई जा सकती, जिन्हें खुद इसका अनुभव न हो। ये लोग न तो अम्ल-रोगी निष्कर्मा जमींदार हैं और न बहुत भार से दबे हुए, कन्या के दहेज की फिक्र से ग्रस्त बंगाली गृहस्थ। इसलिए सोना जानते हैं। दिन भर घोर परिश्रम करने के उपरान्त, रात को ज्यों ही उन्होंने चारपाई ग्रहण की कि फिर, घर में आग लगाए बगैर, सिर्फ चिल्लाकर या दरवाजा खटखटाकर उन्हें जगा दूँगा - ऐसी प्रतिज्ञा यदि स्वयं सत्यवादी अर्जुन भी, जयद्रथ-वध की प्रतिज्ञा के बदले कर बैठते तो, यह बात कसम खाकर कही जा सकती है कि उन्हें भी मिथ्या प्रतिज्ञा के पाप से दग्ध होकर मर जाना पड़ता।

हम दोनों जने बाहर खड़े होकर तीव्र कण्ठ से चीत्कार करके तथा जितने भी कूट-कौशल मनुष्य के दिमाग में आ सकते हैं, उन सबको एक-एक करके आजमा करके, आधा घण्टे बाद खाली हाथ लौट आए। परन्तु घाट पर आकर देखा तो वह जन-शून्य है। चाँदनी में जहाँ तक नजर दौड़ती थी वहाँ तक कोई भी नहीं दिखता। 'दर्जीपाड़े' का कहीं कोई निशान भी नहीं। नाव जैसी थी वैसी ही पड़ी हुई है - फिर बाबू साहब गये कहाँ? हम दोनों प्राणपण से चीत्कार कर उठे-'नवीन भइया' किन्तु कहीं कोई नहीं। हम लोगों की व्याकुल पुकार, बाईं और दाहिनी बाजू के खूब ऊँचे कगारों से टकराकर, अस्पष्ट होती हुई, बार-बार लौटने लगी। आस-पास के उस प्रदेश में, शीतकाल में, बीच बीच में बाघों के आने की बात भी सुनी जाती थी। गृहस्थ किसान इन दलबद्ध बाघों की विपत्ति से व्यस्त रहते थे। सहसा इन्द्र इसी बात को कह बैठा, “कहीं बाघ तो नहीं उठा ले गया रे!” भय के मारे मेरे रोंगटे खड़े हो गये। यह क्या कहते हो? इसके पहले उनके निरतिशय अभद्र व्यवहार से मैं नाराज तो सचमुच ही हो उठा था परन्तु, इतना बड़ा अभिशाप तो मैंने उन्हें नहीं दिया था!

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