उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
उसका कण्ठ-स्वर सुनकर मेरी आँखों में एक मुहूर्त में ही जल भर आया। किसी तरह उसे छिपाकर बोला, “तुम्हारा ही भला, क्या दोष है इन्द्र? तुम ही क्यों जाते हो?”
जवाब में इन्द्र ने मेरे हाथ से बाँस छीनकर नाव में फेंक दिया और कहा, “मेरा भी कुछ दोष नहीं है भाई, मैं भी नवीन भइया को लाना नहीं चाहता था। परन्तु, अब अकेले लौटा भी नहीं जा सकता, मुझे तो जाना होगा।”
परन्तु मुझे भी तो जाना चाहिए। क्योंकि, पहले ही एक दफे कह चुका हूँ कि मैं स्वयं भी बिल्कुल डरपोक न था। अतएव बाँस को फिर उठाकर मैं खड़ा हो गया और वाद-विवाद किये बगैर ही हम दोनों आगे चल दिए। इन्द्र बोला, “बालू पर दौड़ा नहीं जा सकता-खबरदार, दौड़ने की कोशिश न करना। नहीं तो, पानी में जा गिरेगा।”
सामने ही एक बालू का टीला था। उसे पार करते ही दीख पड़ा, बहुत दूर पर पानी के किनारे छह-सात कुत्ते खड़े भौंक रहे हैं। जहाँ तक नजर गयी वहाँ तक थोड़े से कुत्तों को छोड़कर, बाघ तो क्या, कोई शृंगाल भी नहीं दिखाई दिया। सावधानी से कुछ देर और अग्रसर होते ही जान पड़ा कि कोई एक काली-सी वस्तु पानी में पड़ी है और वे उसका पहरा दे रहे हैं। इन्द्र चिल्ला उठा, “नूतन भइया!”
नूतन भइया गले तक पानी में खड़े हुए अस्पष्ट स्वर से रो पड़े, “यहाँ हूँ मैं!”
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