कहानी संग्रह >> वीर बालक वीर बालकहनुमानप्रसाद पोद्दार
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वीर बालकों के साहसपूर्ण कृत्यों की मनोहारी कथाएँ
वीर बालक
वीर बालक लव-कुश
मर्यादापुरुषोत्तम भगवान् श्रीराम ने मर्यादा की रक्षाके लिये पतिव्रता शिरोमणि श्रीजानकी जी का त्याग कर दिया। श्रीराम और जानकी परस्पर अभिन्न हैं। वे दोनों सदा एक हैं। उनका यह अलग होना और मिलना तो एक लीलामात्र है। भगवान् श्रीराम ने अपने यश की रक्षा के लोभ से, अपयश के भय से या किसी कठोरतावश श्रीजानकी जी का त्याग नहीं किया था। वे जानते थे कि श्रीसीता सम्पूर्ण रूप से निर्दोष हैं। श्रीसीताजी के वियोग में उन्हें कम दुःख नहीं होता था। यदि सीता-त्याग में कोई कठोरता है तो वह जितनी सीताजी के प्रति है, उतनी ही या उससे भी अधिक श्रीराम की अपने प्रति भी है, लेकिन भगवान का अवतार संसार में मर्यादा की स्थापना के लिये हुआ था। यदि आदर्श पुरुष अपने आचरण में साधारण ढीला भी रहने दे तो दूसरे लोग उनका उदाहरण लेकर बड़े-बड़े दोष करने लगते हैं। विवश होकर पवित्रता से श्रीसीता जी को लंका में रावण के यहाँ बन्दिनी बनकर अशोक वाटिका में रहना पड़ा था। अब कुछ लोग इसी बात को लेकर अनेक प्रकार की बातें कहने लगे थे। कहीं इसी बात को लेकर स्त्रियाँ अपने अनाचार का समर्थन न करने लगें और पुरुष भी आचरण बिगाड़ न लें।यह सोचकर मर्यादापुरुषोत्तम को अपने ही प्रति यह भीषण कठोरता करनी पड़ी। उन्हें शासकों के सामने भी यह आदर्श रखना था कि प्रजा के आदर्श की रक्षा के लिये शासक को कहाँ तक व्यक्तिगत त्याग करने को तैयार रहना चाहिये।
भगवान् श्रीराम की आज्ञा से विवश होकर लक्ष्मण जी श्रीजान की को वन में महर्षि वाल्मीकि के आश्रम के समीप उस समय छोड़ आये, जब श्रीसीता जी गर्भवती थीं। वाल्मीकि जी वहाँ से श्रीजानकी जी को अपने आश्रम में ले गये और वहीं एक साथ यमजरूप में लव-कुश का जन्म हुआ। आश्रम में महर्षि ने ही दोनों बालकों के सब संस्कार कराये और महर्षि ने ही उनको समस्त शास्त्रों तथा अस्त्र-शस्त्र की भी शिक्षा दी। इसके अतिरिक्त महर्षि ने अपने 'वाल्मीकीय रामायण' का गान भी उनको सिखाया। सात काण्ड और पाँच सौ सर्गवाले इस चौबीस हजार श्लोकों में बने हुए श्रीरामचरितको जब दोनों कुमार अपने कोमल, सुमधुर स्वर में संगीत-शास्त्र के अनुसार गान करने लगते थे, तब श्रोता मुग्ध हो जाते थे।
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