नई पुस्तकें >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 1 प्रेमचन्द की कहानियाँ 1प्रेमचंद
|
7 पाठकों को प्रिय 105 पाठक हैं |
प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का पहला भाग
'फिर क्या, अभी तो यहीं पड़ी हूँ।'
'तो मेरे घर क्यों नहीं चलतीं? अकेले तो इस घर में मैं न रहने दूँगी।'
'खुफिया के दो आदमी इस वक्त भी डटे हुए हैं।'
'मैं पहले ही समझ गयी थी, दोनों खुफिया के आदमी होंगे।'
ज्ञान बाबू ने पत्नी की ओर देखकर, मानो उसकी आज्ञा से कहा- तो मैं जाकर ताँगा लाऊँ?
देवीजी ने इस तरह देखा, मानो कह रही हों, क्या अभी तुम यहीं खड़े हो?
मास्टर साहब चुपके से द्वार की ओर चले।
'ठहरो'- देवीजी बोलीं- कै ताँगे लाओगे?
'कै!' मास्टर साहब घबड़ा गये।
'हाँ कै! एक ताँगे पर तीन सवारियाँ ही बैठेंगी। संदूक, बिछावन, बरतन-भाँडे क्या मेरे सिर पर जायेंगे?'
'तो दो लेता आऊँगा।'- मास्टर साहब डरते-डरते बोले।
'एक ताँगे में कितना सामान भर दोगे?'
'तो तीन लेता आऊँ?'
'अरे तो जाओगे भी। जरा-सी बात के लिए घंटा भर लगा दिया।'
मैं कुछ कहने न पायी थी, कि ज्ञान बाबू चल दिये। मैंने सकुचाते हुए कहा- बहन, तुम्हें मेरे जाने से कष्ट होगा और...
देवीजी ने तीक्ष्ण स्वर में कहा- हाँ, होगा तो अवश्य। तुम दोनों जून में दो-तीन पाव भर आटा खाओगी, कमरे के एक कोने में अड्डा जमा लोगी, सिर में आने का तेल डालोगी। यह क्या थोड़ा कष्ट है!'
मैंने झेंपते हुए कहा- आप तो बना रही हैं।'
|