नई पुस्तकें >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 1 प्रेमचन्द की कहानियाँ 1प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का पहला भाग
एक दिन रुक्मिन बाजार में लकड़ियाँ बेच कर लौटी, तो पयाग ने कहा - ला, कुछ पैसे मुझे दे दे, दम लगा आऊँ।
रुक्मिन ने मुँह फेर कर कहा - दम लगाने की ऐसी चाट है, तो काम क्यों नहीं करते? क्या आजकल कोई बाबा नहीं हैं, जा कर चिलम भरो?
पयाग ने त्योरी चढ़ा कर कहा - भला चाहती है तो पैसे दे दे; नहीं तो इस तरह तंग करेगी, तो एक दिन कहीं चला जाऊँगा, तब रोयेगी।
रुक्मिन अँगूठा दिखा कर बोली - रोये मेरी बला। तुम रहते ही हो, तो कौन सोने का कौर खिला देते हो? अब भी छाती फाड़ती हूँ, तब भी छाती फाड़ूँगी।
'तो अब यही फैसला है?'
'हाँ-हाँ, कह तो दिया, मेरे पास पैसे नहीं हैं।'
'गहने बनवाने के लिए पैसे हैं और मैं चार पैसे माँगता हूँ, तो यों जवाब देती है !
रुक्मिन तिनक कर बोली - गहने बनवाती हूँ, तो तुम्हारी छाती क्यों फटती है? तुमने तो पीतल का छल्ला भी नहीं बनवाया, या इतना भी नहीं देखा जाता? पयाग उस दिन घर न आया। रात के नौ बज गये, तब रुक्मिन ने किवाड़ बंद कर लिये। समझी, गाँव में कहीं छिपा बैठा होगा। समझता होगा, मुझे मनाने आयेगी, मेरी बला जाती है। जब दूसरे दिन भी पयाग न आया, तो रुक्मिन को चिंता हुई। गाँव भर छान आयी। चिड़िया किसी भी डाल पर न मिली। उस दिन उसने रसोई नहीं बनायी। रात को लेटी भी तो बहुत देर तक आँखें न लगीं। शंका हो रही थी, पयाग सचमुच तो विरक्त नहीं हो गया। उसने सोचा, प्रात:काल पत्ता-पत्ता छान डालूँगी, किसी साधु-संत के साथ होगा। जा कर थाने में रपट कर दूँगी। अभी तड़का ही था कि रुक्मिन थाने में चलने को तैयार हो गयी। किवाड़ बंद करके निकली ही थी कि पयाग आता हुआ दिखाई दिया। पर वह अकेला न था। उसके पीछे-पीछे एक स्त्री भी थी। उसकी छींट की साड़ी, रँगी हुई चादर, लम्बा घूँघट और शर्मीली चाल देख कर रुक्मिन का कलेजा धक्-से हो गया। वह एक क्षण हतबुद्धि-सी खड़ी रही, तब बढ़ कर नयी सौत को दोनों हाथों के बीच में ले लिया और उसे इस भाँति धीरे-धीरे घर के अंदर ले चली, जैसे कोई रोगी जीवन से निराश हो कर विष-पान कर रहा हो !
जब पड़ोसियों की भीड़ छँट गयी तो रुक्मिन ने पयाग से पूछा- इसे कहाँ से लाये?
पयाग ने हँस कर कहा - घर से भागी जाती थी, मुझे रास्ते में मिल गयी। घर का काम-धांधा करेगी, पड़ी रहेगी।
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