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प्रेमचन्द की कहानियाँ 4

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :173
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9765

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का चौथा भाग


लेकिन अब अनूपा वह अनूपा न थी, जिसने १४ वर्ष पहले वासुदेव को पति भाव से देखा था, अब उस भाव का स्थान मातृभाव ने लिया था। इधर कुछ दिनों से वह एक गहरे सोच में डूबी रहती थी। सगाई के दिन ज्यो-ज्यों निकट आते थे, उसका दिल बैठा जाता था। अपने जीवन में इतने बडे परिवर्तन की कल्पना ही से उसका कलेजा दहक उठता था। जिसे बालक की भॉति पाला-पोसा, उसे पति बनाते हुए, लज्जा से उसका मुख लाल हो जाता था। द्वार पर नगाडा बज रहा था। बिरादरी के लोग जमा थे। घर में गाना हो रहा था ! आज सगाई की तिथि थी : सहसा अनूपा ने जा कर सास से कहा- अम्मां मैं तो लाज के मारे मरी जा रही हूं।

सास ने भौंचक्की हो कर पूछा- क्यों बेटी, क्या है?

अनूपा- मैं सगाई न करूंगी।

सास- कैसी बात करती है बेटी? सारी तैयारी हो गयी। लोग सुनेंगे तो क्या कहेगें?

अनूपा- जो चाहे कहें, जिनके नाम पर १४ वर्ष बैठी रही उसी के नाम पर अब भी बैठी रहूंगी। मैंने समझा था मरद के बिना औरत से रहा न जाता होगा। मेरी तो भगवान ने इज्जत आबरू निबाह दी। जब नयी उम्र के दिन कट गये तो अब कौन चिन्ता है ! वासुदेव की सगाई कोई लडकी खोजकर कर दो। जैसे अब तक उसे पाला, उसी तरह अब उसके बाल-बच्चों को पालूंगी।

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2. आप-बीती

साहित्य-सेवियों के जीवन में एक ऐसा समय आता है, जब पाठकगण उनके पास श्रद्धापूर्ण पत्र भेजने लगते हैं। कोई उनकी रचना-शैली की प्रशंसा करता है, कोई उनके सद्विचारों पर मुग्ध हो जाता है। लेखक को भी कुछ दिनों से यह सौभाग्य प्राप्त है, ऐसे पत्रों को पढ़कर उसका हृदय कितना गद्गद हो जाता है, इसे किसी साहित्य-सेवी ही से पूछना चाहिए। अपने फटे कम्बल पर बैठा हुआ वह गर्व और आत्मगौरव की लहरों में डूब जाता है। भूल जाता है कि रात को गीली लकड़ी से भोजन पकाने के कारण सिर में कितना दर्द हो रहा था, खटमलों और मच्छरों ने रात-भर कैसे नींद हराम कर दी थी। ‘मैं भी कुछ हूँ’ यह अहंकार उसे एक क्षण के लिए उन्मत्त बना देता है। पिछले साल, सावन के महीने में मुझे एक ऐसा ही पत्र मिला। उसमें मेरी क्षुद्र रचनाओं की दिल खोलकर दाद दी गई थी।

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