लोगों की राय

कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 7

प्रेमचन्द की कहानियाँ 7

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :152
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9768

Like this Hindi book 9 पाठकों को प्रिय

69 पाठक हैं

प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सातवाँ भाग


मैंने निर्भीक होकर कहा- मुझे क्षमा कीजिए, मुझसे यह काम न होगा।

राजा साहब का चेहरा पीला पड़ गया, मेरी ओर विस्मत से देखकर बोले- इसका मतलब?

’मैं यह काम न कर सकूंगा।‘

’क्यों?’

’मुझमें वह सामर्थ्य नहीं है।

राजा साहब ने व्यंगपूर्ण नेत्रों से देखकर कहा- शायद आत्मा जागृत हो गई, क्यों? वही बीमारी, जो कायरों और नामर्दों को हुआ करती है। अच्छी बात है, जाओ।

‘हुजूर, आप मुझसे नाराज न हों, मैं अपने में वह....।‘

राजा साहब ने सिंह की भांति आग्नेय नेत्रों से देखते हुए गरजकर कहा- मत बको, नमक...। फिर कुछ नम्र होकर बोले- तुम्हारे भाग्य में ठोकरें खाना ही लिखा है। मैंने तुम्हें वह अवसर दिया था, जिसे कोई दूसरा आदमी दैवी वरदान समझता, मगर तुमने उसकी कद्र न की। तुम्हारी तकदीर तुमसे फिरी हुई है। हमेशा गुलामी करोगे और धक्के खाओगे। तुम जैसे आदमियों के लिए गेरूए बाने हैं और कमण्डल तथा पहाड़ की गुफा। इस धर्म और अधर्म की समस्या पर विचार करने के लिए उसी वैराग्य की जरूरत है। संसार मर्दों के लिए है।

मैं पछता रहा था कि मैंने पहले ही क्यों न इन्कार कर दिया।

राजा साहब ने एक क्षण के बाद फिर कहा- अब भी मौका है, फिर सोचो।

मैंने उसी नि:शंक तत्परता के साथ कहा- हुजूर, मैंने खूब सोचा लिया है।

राजा साहब होठ दांतों से काटकर बोले- बेहतर है, जाओ और आज ही रात को मेरे राज्य की सीमा के बाहर निकल जाओ। शायद कल तुम्हें इसका अवसर न मिले। मैं न मालूम क्या समझकर तुम्हारी जान बख्शी कर रहा हूँ। न जाने कौन मेरे हृदय में बैठा हुआ तुम्हारी रक्षा कर रहा है। मैं इस वक्त अपने आप में नहीं हूँ, लेकिन मुझे तुम्हारी शराफत पर भरोसा है। मुझे अब भी विश्वास है कि इस मामले को तुम दीवार के सामने भी जबान पर न लाओगे।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

विनामूल्य पूर्वावलोकन

Prev
Next
Prev
Next

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book